ले आई थी कभी मैं भी माणिक पुष्प भर
इस मानस घट से
और तुमने लौटा दिया था द्वार से
मेरा धरा बन जाना ही यदि तुम्हारे
अधरों पर मृदु हास का उजास बिखेर सकता है
तो अब धूमिल हो जाना ही मेरी साध है
लो आज सूत्र नही सौंपती हूँ स्वयं को
उस सूखी ज़मीन के रूप में
जिस पर तुम बिखर सको टूटे कांच से
मनीषा
इस मानस घट से
और तुमने लौटा दिया था द्वार से
मेरा धरा बन जाना ही यदि तुम्हारे
अधरों पर मृदु हास का उजास बिखेर सकता है
तो अब धूमिल हो जाना ही मेरी साध है
लो आज सूत्र नही सौंपती हूँ स्वयं को
उस सूखी ज़मीन के रूप में
जिस पर तुम बिखर सको टूटे कांच से
मनीषा
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