Pages

Sunday, January 28, 2024

इक तेरी खामोशी है एक मेरा इंतज़ार

 इक तेरी खामोशी है एक मेरा इंतज़ार।

ना वो टूटती है, ना ये ख़त्म होता है।।


मिलते हैं लोग क्यों  बिछड़ने को सदा।

ना मालूम इश्क में ये कायदा क्यों होता है।।


तेरी रूखस्त तक रुकी थी मैं वहीं तुझे देखते।

ना जाने तुझ से अब मिलना कब होता है।।


लिखती हूं मिटाती हूं रोज वही एक पैगाम।

ना जाने तुझ से कहने का हौसला कब होता है।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Friday, January 26, 2024

जो तुम आओ

 कितने रत्न पहनूं

कितने चिन्ह सजाऊं

चौखट पर 

जो तुम आओ ।।


कहो तो, मंत्र जपूं और 

तीर्थ कर आऊं नंगे पांव

जो तुम आओ।।


क्या वास्तु दोष है 

या जाऊं किसी बामन से

पत्री बचवाऊं

जो तुम आओ ।।


नसीब का है 

क्या ये खेला ?

क्या ये  कोई साजिश है

दुनिया की?

करूं क्या उपाय

कि मेरी तकदीर में 

जो तुम आओ।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Saturday, January 13, 2024

इश्क तो हो सकता है ना

इश्क तो हो सकता है ना

खिली सी धूप हो और 

हवा से एक जुल्फ बिखर जाए 

एक उन्मुक्त हंसी जाने 

कब मन को छू जाए 

तब इश्क तो हो सकता है ना?


घोर कुहासा हो

कांपती ठंड में 

लाल टोपी और सफेद मफलर में 

कब कोई दो आंखे टकरा जाएं

तब इश्क तो हो सकता है ना?


किसी टपरी पर साथ बैठे 

चाय के प्यालों के बीच 

उठते ठहाकों में 

जब मन मिल जाएं 

तब इश्क तो हो सकता है ना?


किसी रेल के सफर में 

किताबों के पन्ने पलटती तुम

कभी मिल जाओ

तब इश्क तो हो सकता है ना?


सड़क किनारे बातों बातों में

सामने आसमां पर 

जब चांद में तुम्हारा अक्स दिखने लगे 

तब इश्क तो हो सकता है ना?


भरी भीड़ में 

सड़क पार करते तुम जब

मेरा हाथ थाम लो

तब इश्क तो हो सकता है ना?


अजनबी शहर में 

एक दस्तक से खुलते 

दरवाजे पर जब तुम मिल जाओ

तब इश्क तो हो सकता है ना?


तब एक शायर बुदबुदाया 

हां शायद इश्क तो कहीं भी 

कभी भी किसी से भी 

हो ही सकता हैं

ये आँसा होगा बस ये शर्त मत रखना।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Thursday, January 11, 2024

मैं पूछना चाहती हूं

 मैं पूछना चाहती हूं

नदी से क्यों चुप सी बहती है?

पूछना चाहती हूं पहाड़ से 

क्यों दर्प से तना है ?

पूछना है मुझे समुद्र से 

क्यों इतना बेचैन है?

ओर पूछना है इस धरती से 

क्यों सब सहती है?


पूछना तो मुझे यह भी है

ईश्वर से

निष्पक्ष क्यों नहीं है तुम्हारा न्याय?

किंतु परंतु से हट कर 

चुप है ईश्वर 

निरुत्तर खड़ा है 

एक  स्वर्णद्वार के परे 

शायद अपनी ही कृति पर विस्मित

अचकचाया सा प्रश्नों से बचता हुआ।

आखिर कहे भी तो क्या?

शायद उसने भी नहीं सोचा था 

सूर्य और चन्द्र के बीच 

मन का इतना गहन अंधेरा होगा।

और मैं

एक प्रश्न चिन्ह सी

हाशिए पर खड़ी हूं

निरुत्तर

निःतांत अकेली।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

लड़की

 लड़की सहमी हुई है

उसने देखा है आसपास

मां से सुना है 

बाज़ार स्कूल दफ्तर

कहीं से भी से सीधे घर ही आना है

चुन्नी से छाती ढाप कर चलती है

तेल लगे बालों में 

कस कर बांध लेती है चोटियां

लेकिन जब वो हंसती है

तो मोती गिरते हैं

और उसकी हंसी उसकी 

आंखो में खिलती है।।

एक दिन किसी बात पर 

सहेलियों के बीच चलते चलते 

वो हंसी थी शायद 

और वो ही उसका दुर्भाग्य था 

अगले दिन से आने लगे थे 

मनचलों के फिकरे 

घर पर कैसे बताती

उसे पता था गलती उसकी है

शायद उसे बाहर नहीं जाना चाहिए 

सड़क पर यूं अकेले 

ऐसे में आया एक प्रणय निवेदन

उसे और डरा गया 

जनून था या वहशीपन

किसे कहे कैसे कहे 

दोषी तो वो खुद थी

क्या जरूरत थी ऐसे हंसने की।।

उसके इंकार ने 

अस्वीकार ने 

मन पर कितनी चोट की

प्रेम की पराकाष्ठा कुछ ऐसी हुई

उसका चेहरा एसिड से भिगो गई

अब उसके वीभत्स चेहरे पर 

मुस्कुराने के लिए होंठ नहीं हैं

आंखो तक कोई चमक नहीं आती

आंखे हीं अब नहीं हैं।

वो अब नियति को स्वीकार 

जीने के लिए विवश है 

न्याय के लिए सदा प्रतिक्षारत है

और 

उसका प्रेमी अब कहीं जरूर गर्व से भरा 

अट्टाहास लगा रहा है

कि तुम मेरी नहीं तो किसी की भी नहीं।

ऐसी प्रेम कहानियां लिखी नहीं जाती

सिर्फ जी जाती हैं बंद कमरों में

और बेमतलब के आंदोलनों में।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Sunday, January 7, 2024

श्वास है तो सब है

 श्वास है तो सब है

मन धौकनी की तरह 

चलता है तो जग है

हंसना हसाना

मिलना मिलाना

रूठना मनाना

जीवन है तो सब है

फिर क्या रहता है

कुहासे सा विराना 

एक अंतहीन शून्य

अभी था सब

अब कुछ नहीं है

वस्त्र आभूषण

ढेर से आडंबर

सब बेकार

हाथ में स्पर्श का

अहसास तक नहीं

आंखों में बस विदाई 

का वो एक आखिरी पल

मन की कितनी अधूरी बातें

अधूरे से सपनों की

टूटी पांखे

है और था में कितना अंतर

एक ना भरने वाला 

खालीपन

ये सारे सूने सूने पल

आंसू पी कर लगाना

ये ज़ोर के ठहाके 

अपने खाली मन को 

देना रोज़ दिलासे

ढूंढना जीने के 

फिर रोज़ नए बहाने

सबसे कहना 

सब ठीक है 

और दिन के साथ 

उगते जाना ढलते जाना

सच सांस है तो सब है

जीने का ये कैसा अधूरा सा

सबब है।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू