कितना अच्छा होता
यदि हम संग रोते संग ही हँसते
संग ही भीगते बारिश की बूंदों में
और नहा जाते सर्दी की धूपों में
कभी बच्चे बन जाते तो कभी
रूठते तुम तो मनाती मैं
और मेरे रूठने पर तुम रिझाते
मन की उच्छ्रंखलता रहती चंचलता नैनो में
कभी रजाई के भीतर बैठे दोनों देखा करते फिल्मे
मैं डरती तो दुबका लेते तुम
मेरी उलझनों को पल मे सुलझा देते तुम
तुम्हारे मेरे दुःख साझे होते
एक दुसरे के बिन बोल हमारे अधूरे होते
जो तुम न कहते वो भाँप लेती मैं
मेरा अनकहा जान लेते तुम
कितना अच्छा होता
यदि हम संग रोते संग ही हँसते
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