माँ थी तो मान था बड़ा गुमान था कब पूरी हो जाती थीं ख्वाहिशें इसका ना कोई अहसास था
माँ भाँप लेती थी ज़रूरत होने से पहले पूरी हो जाती थीं माँ से मायका था उस घर लौटने का एक चाव था रोज़ रोज़ फ़ोन की घंटी का इंतज़ार था हर सावन आने का न्योत था माँ थी तो बड़ा मान था हम में भी बड़ा गुमान था
व्रत त्यौहार कुछ पूरे पूरे से लगते थे नीम के पेड़ पर झूले से लगते थे गाँव घर मे मेले से लगते थे रात भर बातों के सिलसिले चलते थे घर में पापा के ठहाके गुंजित रहतें थे माँ थी तो कहाँ हम अकेले से लगते थे माँ थी तो बड़ा मान था हम में भी बड़ा गुमान था
घर में पकवान के रेहड़े से लगते थे चौके मे डब्बे भरे से रह्ते थे जब घर पहुंचो उसे हम दुबले से लगते थे कपड़े भी सारे धुले मिलते थे उसे मेरे बाल हमेशा लम्बे लगते थे उसे सारे मेरे दोस्त बेटों से लगते थे माँ थी तो बड़ा मान था हम में भी बड़ा गुमान था
मेरे लिए पापा से भी लड़ जाती थी हर चोट उसकी एक फूंक से ठीक हो जाती थी जो रुलाए मुझे उसे कोसे जाती थी माँ के आँचल से मैं हाथ पोंछ आती थी वो गोद मे सिर रख बाल हौले से सहलाती थी सच बड़े मज़े की मीठी मीठी नींद आती थी माँ थी तो बड़ा मान था हम में भी बड़ा गुमान था
कहानी सुना मुँह मे कौर भर देती कभी डपट कर थाली मे एक और रोटी धर देती थी जाते समय लड्डू आचार से एक और बैग तैयार कर देती थी आँखे पोंछ पोंछ आँचल गीला कर लेती थी सच माँ थी तो बड़ा मान था हम में भी बड़ा गुमान था मनीषा
ये तो नहीं सोचा था
यूँ चुप हो जाना
बातों में टाल जाना
न मुस्कुराना
न पास आना
इस तरह भूल जाना
ये तो नहीं सोचा था
कुछ तो नहीं माँगा था
एक सच सा रिश्ता
एक छोटा सा सपना
कुछ प्यारी सी बातें
मान मनुहार
बस कुछ तो नहीं माँगा था
लेकिन तुमसे इतना तो चाहा था
चलते चलते फिर मिलने का वादा न सही
मुस्कुरा कर एक अलविदा तो कहते
सच कुछ भी तो नहीं चाहा था