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Saturday, March 28, 2015

लिखना है तो दिल की बात लिखो

लिखना है तो दिल की बात लिखो 
सूनी राहें तकते 
सूखे जो आँसू नम आँखों में 
उसकी याद लिखो 
लिखना है तो उन कांपती हथेलियों की 
सिरहन की बात लिखो
लिखना है तो
रात के सन्नाटों में उठती
हूक की बात लिखो
उन बूढ़ी बातों से झरते
प्यार की बात लिखो
लिखना है तो मन पर जो
अपने जाए ने जो दिए
आघात उसकी बात लिखो
लिखना है तो चोट खाए माँ के दिल से
निकले आशीष की बात लिखो
मनीषा

Friday, March 27, 2015

सदियों से सांझी ये पीर पुरानी है

सदियों से सांझी ये पीर पुरानी है
सखी  तेरी और मेरी एक ही कहानी  है
कुछ अश्रु तेरी आँखों के मेरी आँख में उतर आए
कलम है मेरी पर यह तेरी ज़ुबानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

मन में विक्षोभ लब पर ख़ामोशी उतारी  है
सखी तूने मैंने जो झेली वही पीर बतानी है
कितने मर्यादा के ज़ेवर पहने रस्में उतारी  हैं
फिर भी दाह  में जलती काया की चीख सुनानी  है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

कभी सफेद कभी लाल ओढ़नी में जो दब जाती है
उन  घुटती  सूखी आँखों की तडप आज बतानी है
सौ पर्दों के बीच जो घूरती उन आँखों की लौ बुझानी है
हैवानी पंजो की पकड़ से अपनी लाज छुडानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

सखी आखिर तो तेरी और मेरी एक ही कहानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है
मनीषा


Wednesday, March 25, 2015

कुछ आँचल के साये

कुछ आँचल के साये इस कदर रूठ जाते हैं 
बात बात पर याद आते हैं 
दिल पूछता है हर लम्हें से 
जाने वाले क्या हमारी सदा सुन पाते हैं 
ऐसे जाते हैं जो क्यों मुँह फेर जाते हैं 
जाने वाली क्यों कभी लौट कर नहीं आ पाते हैं 
कहते हैं वो आसमां के तारों में मुस्काते हैं 
उनकी याद में जब हम अश्रु बहाते हैं 
हमसे मिलने के लिए शायद वो भी छटपटाते हैं
और जब भी उन्हें याद कर हम मुस्काते हैं 
धरा की हर शह में वो हमारे संग गुनगुनाते हैं 
मनीषा

Monday, March 23, 2015

दुनिया का दस्तूर

दुनिया का दस्तूर निभाना पड़ता है 
ना चाहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है 
आँख में छलके आँसू को छिपाना पड़ता है 
हो मन में घोर संताप जीवन में हो कोई विषाद 
फिर भी है सब ठीक बताना पड़ता है 
दुनिया का दस्तूर निभाना पड़ता है
मनीषा

Tuesday, March 10, 2015

तेरे भीतर जो खामोश बैठा करता है

तेरे भीतर जो खामोश बैठा करता है
वो शख्स जो सब देख कर
सह कर भी
चुप रहा करता है
उस शख़्स  के वजूद को
आवाज़ दे और बुला ले
थोड़ी खामोशियाँ बाँटनी  है
उस से
मनीषा 

Sunday, March 8, 2015

कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान

सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहाँ है भारत की इस महान संस्कृति में
स्त्री का स्थान
कभी गढ़ दी गई देवी कह पत्थर की प्रतिमा में
कभी सीता बन कर भूमि में समाने को हो गई विवश
द्रौपदी का चीर , सीता का हरण
पौरूष की व्याख्या से ढक देते हो
और कितनी अग्नि परीक्षाएँ लेते हो
सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान
सर से ले कर पाँव तक
सब श्रृंगार तुम्हारे नाम के जड़ देते हो
एक चुटकी सिन्दूर से
अस्तित्व की पहचान बदल देते हो
मेरे सब नाम बदल देते हो
जहां जन्मती हूँ उस आँगन को पराया कहते हो
जहाँ डोली से उतरती हूँ उस घर को अपना ही कहते हो
सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान
सारे घर में सबका कमरा होता है
कोई बताए माँ का कमरा कौन सा होता है
माँ रहती है चौके से पूजा घर तक सीमित
खाना बनाना , घर सम्भालना उसी का दायित्व होता है
ऑफिस से घर तक सिर्फ दायित्व सुना देते हो
बहुत एहसान है जो प्रसव के बाद छः माह छुट्टी दे देते हो
सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान
बस में मेट्रो में दो सीट सुरक्षित कर देते हो
दस डब्बों में एक अलग कर देते हो
बाहर निकलने का समय तय कर देते हो
और क्या पहनूँ तुम तो बुर्के में भी नंगा कर देते हो
उम्र मेरी चाहे हो दो या अस्सी तुम तो
मुझे सिर्फ योनि तक सीमित कर देते हो
सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान
मैं अबला हूँ इसका अर्थ एक पंक्ति से बदल देते हो
क्या खाऊँ क्या खरीदूँ कितना पढ़ूँ कहाँ जाऊँ
किस से मिलूँ कब हँसू कितना बोलूँ
किसके संग जीवन बिताऊँ
तुम तो सब आयाम निश्चित कर देते हो
आँख खुलने से आँख बंद होने तक
अपने अहम में मेरी जुबां खामोश कर देते हो `
गार्गी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा के उदाहरण भुला दिए
रूपकुँवर की स्मृति में मंदिर बना जिन्होंने करोड़ों कमाए
जिस देश में इन्दिरा जैसी बेटी राज कर जाए फिर भी
कल्पना चावला सिर्फ एक अपवाद कहलाए
प्यार के नाम पर किसी लक्ष्मी पर कोई एसिड उड़ेल जाए
साल भर की बिटिया भी दामिनी की तरह तड़प तड़प मर जाए
उस संस्कृति में सच ही कहते ही
हाँ सच ही तो कहते हो
कहाँ है वहां स्त्री का स्थान
सच कहते हो
हाँ सच ही तो कहते हो
कहां है किसी भी संस्कृति में मेरा स्थान
मनीषा

Thursday, March 5, 2015

सपनों में सच का रंग मत घोलो

सपनों  में सच का रंग मत घोलो
तुम मेरे संग होली खेलो
मैं बिसराऊँ खुद को
तुम मुझमे खुद को भूलो
तुम मेरे संग होली खेलो

बन जाओ तुम अंबर
मैं धरा सी बिछ जाऊं
बिखेरे सुदूर क्षितिज पर
साँझ सुबह के रंग दोनों
तुम मेरे संग होली खेलो

बन जाना तुम कान्हा
मैं राधा हो जाऊं
हो वृन्दावन ये जग सारा
इस फाल्गुनी हवा में मस्ती घोलो
तुम मेरे संग होली खेलो

सपनों  में सच का रंग मत घोलो
तुम मेरे संग होली खेलो
मनीषा