Pages

Thursday, February 20, 2025

मुसाफिर रे!

 मुसाफिर रे !यह जग रैन बसेरा कौन जाने कहां तेरा ठिकाना ?

बांध ले अपने सपनों की गठरी हर पल आना जाना

छूटे बंधु छूटे अपने कौन जाने क्या रहा अपना क्या पराया 

मुसाफिर रे कहां तेरा ठिकाना 

मनीषा वर्मा

#गुफ्तगू

Sunday, February 9, 2025

कभी कहीं

 कभी कहीं लौटने के रास्ते गुम हो जाते हैं

कहीं कभी लौटने के लिए कुछ नहीं होता।।


कभी बन जाते हैं अनजाने भी हमसफर

कभी कोई रहनुमा ही नहीं होता।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Thursday, February 6, 2025

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे

 तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


ये ज़ुल्फ लहराई भी थी गश खाई भी थी

शोखियां नज़रों की ना कभी समझे तुम ना हम कभी कह सके।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


मजबूरियां थीं जमाने की परेशानियां भी थीं

जो चुप तुम लगा गए और हम भी वहीं मुरझा गए।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


आंखो का समंदर उमड़ा भी था इन पलकों पर आ कर ठहरा भी था 

हाथ मेंहदी में तुम्हारा नाम हम लिखा ना सके 

जो दिल में था तुम्हे ही बता ना सके ।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


महफिलों में गाते फिरते हैं तुम्हारे ही किस्से 

फिर ना कहना हमने बताया ही ना था 

प्यार था कितना ये जताया ही ना था ।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू