अजीब ही है
जैसे गले में एक शब्द घुट कर रह गया
उस दिन...
मां
आज भी उतनी ही वेदना से
भीतर घुड़मता है वही बार बार ।।
यहीं आ कर चेतना शून्य हो जाती है
मन तर्क कुतर्क से परे
बस चीखना चाहता है... मां उठो।।
मन है कि बस
देखना चाहता है वही स्नेहिल मुस्कान
महसूस करना चाहता है वही स्पर्श
जो पूरी प्रकृति में कहीं नहीं है
और अतीत की कोई स्मृति
जैसे ही मन गुदगुदाती है
नजर घूमती है बगल में कि अरे मां को बताएं
लेकिन वो जगह तो खाली है
वहां कोई नहीं है सुनने को
और फिर मन चीख उठता है
मां... उठो।।
छुट्टियां आती हैं त्योहार आते हैं
जिनके पास मां हैं वो लौटते हैं
उनके पास घर हैं लौटने को
हमारे पास भी है एक मकान
एक घर हमारी संतानों के लिए
पर हमारा घर ?
दिए की लड़ियां लगाते हुए
मां की सब सावधानियां याद आती हैं
दूर से जगमग देख कर मन सोचता है
पूंछू ठीक लग रही है ना
लेकिन किससे
और फिर मन चीख उठता है
मां ....सुनो ना
कहां गईं?
मां...उठो
तुम्हारी संतानें अभी है
तुम कैसे जा सकती हो?
किसने तुम्हें छूट दे दी कि
चल दो इस अंतिम सफर पर
ना नहीं
मां....उठो,
उठो ना मां ।।
मनीषा वर्मा
#गुफ्तगू