Pages

Sunday, September 17, 2023

अंतिम विदाई अंतिम प्रणाम

आज फिर मैं जो सफर पर चला

किसी ने लौट कर आने को ना कहा

ना माथा चूमा ना दोनो हाथ उठा आशीष भरा

किसी ने आंचल से नाम आंखे पोछते विदा ना किया

आज फिर जो मैं सफर पर चला।।


ना हाथ में डब्बा था नमकीन भरा 

ना घी चुपड़ी रोटी और आचार 

ना थी घर की वो पुरानी नेमते

थोड़ी सी रोली चावल की गोदी

और झूठमूठ के वादे और 

वो सच्ची कसमें और सख़्त हिदायते

आज जो फिर मैं सफर पर चला।।


ना लौट कर आने को कहने वाले पिता थे 

ना ठीक से रहना कहती अम्मा 

ना फिर आने को कहती भाभी  

ना पीठ थपथपाते  भईया 

था बस एक सूना द्वार

जर्जर होती जा रही दीवार से झड़ता पलास्तर

और जंग खाता चुप सा जंगला

आज जो फिर मैं सफर पर चला।।


मनीषा वर्मा


#गुफ़्तगू

Saturday, September 16, 2023

द्वार बंद कर आई हूं

द्वार बंद कर आई हूं

सब चाबियां समेट लाई हूं

लेकिन ताले कहां रोक सकेंगे

बदलते समय के प्रवाह को

फिर भी एक समंदर अपने भीतर

समेट लाई हूं।।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


सांकल चुप थी दीवारें उदास 

हां एक पंखा था पूरी शिद्दत के साथ घूमता

एक  अधूरे दिलासे की तरह रोकता

उसे भी अलविदा कह आई हूं।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


आकाश बहुत नीला था उस छत पर

चांद सदा पूरा था उस आंगन  पर 

शाम उतरती थी सुनहरी भोर होती थी रूपहली 

एक पैगम्बर था आगे पीछे  एक ईश्वर था

अज़ान और घंटियों से भरी भोर छोड़ आई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


तन पर पगधूलि लपेट आई हूं

छत पर थोड़ा भीग आई हूं

एक आखिरी बार छज्जे से 

उतरता सूरज देख आई हूं

चिर परिचित वो शाम बटोर लाई हूं।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


फर्श पर धूल के बीच थे वो गढ्ढे 

जो हमने तुमने मासूम उंगलियों से कभी भरे थे

एक चौखट थी कच्ची सी, मां के हाथ की बनी

उस पर इतराता बंदनवार छोड़ आई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


एक गठरी बातें उन दीवारों की समेट लाई हूं

थोड़ी खुशी थोड़ी राहतें संग ले आई हूं

पूजा घर से भगवान उठा लाई हूं 

हमारी उस देहरी पर शीश नवा आई हूं

तुम्हारे लिए मां के पुराने खत संभाल लाई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू 


Wednesday, September 13, 2023

एक कमी सी बनी रहती है

 ख्यालों में एक नदी सी बहती है

चांदनी भी रात भर उदास रहती है

भीतर बाहर एक सर्द नमी सी बनी रहती है

वो आता है ले कर लौट जाने की तारीख

घर में एक कमी सी बनी रहती है।।


मुस्कुराहटें उदास सी खिली रहती हैं

बना तो लिया है आशियां अपना

आने वालों की कमी सी रहती है 

शायद ना दे सकी उसे 

रुकने की कोई वजह

जो उसे जाने की पड़ी रहती है।।


बिछी चादर पर एक सिलवट सी पड़ी रहती है

बिस्तर के किनारे एक किताब अधूरी सी रखी रहती है

भोर आती है चुपके से आंगन में फैली धूप के साथ

रात भर उसके  आने की आहट लगी रहती है।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Tuesday, September 12, 2023

कबाड़

सुनो तुम जिसे कबाड़ कह रहे हो ना 

वो मेरा बीता कल है गुज़रा समय है मेरा

ये जो महक रहा है ना बंद बक्सा सा 

उसमे सुगंध है मेरे बचपन की

कस के ताले जड़ के बंद किया था 

मां के कहने पर ।

उसने संभाल कर रखे थे इसमें,

कुछ काढ़े हुए गिलाफ तकिए और चादर ।

हां! एक कांसे की कटोरी और गिलास भी था, 

मेरी नानी ने दिया था उसे ब्याह में।

हां!  ये पुरानी अलमारी जो अब जर्जर सी दिखती है जो

कभी दहेज में लाईं थी  मां,नई चमकती।

हर साल दिवाली पर हम इसे पेंट कर के नई सी कर देते,

और मां फिर  फिर किस्सा दोहराती थी;

चौथी मंजिल से गिरी थी एक बार घर बदलते हुए 

देखो कुछ ना हुआ बस पांव टेढ़ा हुआ जरा 

कितना मजबूत लोहा है।

हां ! हां !जानती हूं पुराना किस्सा है।

कई बार कहा सुना है।

अब इस जंग खाती अलमारी से मोह क्या ?

मोह तो किस्से से है याद से है।

उस काली  चमड़े की अटैची पर जम के हंसते,

जब मां कहती हरी है ।

चमड़ा पुराना हो कर काला हो गया था,

फिर भी हम खिजाते उसे, क्या मां! रंग नहीं पहचानती?

और जो ये मेज है, ना इसकी इसी छोटी दराज में,

पीछे, बिल्कुल पीछे, मै तुम्हारे खत छिपा दिया करती थी,

चोरी चोरी निकाल कर पढ़ने के लिए।

इसी तख्त पर तो बेटे की मालिश की थी दादी ने,

और सिले थे मां और बुआ ने इस पुरानी मशीन पर झबले।

ये जो बिना पाय और दरवाजे वाली अलमारी है ना

दादी की है, 

उसकी दराज़ो ने पीढ़ियों की विरासते संभाली हैं।

कभी रसोई की शान बनी तो कभी पापा कि किताबें संभाली हैं

पीढ़ी दर पीढ़ी चलती अब बूढ़ी हो चली है

शायद अब संभाल मांगती है, एक बुजुर्ग की तरह उसे

भी एक कोने में रहने दो।

ये जो पुरानी किताब है ना हां!हां! गणित की

जानती हूं मेरा विषय नहीं है

लेकिन इसके कुछ पन्नों पर मां के हाथ से लिखे कुछ फुटकर नोट्स हैं धुंधले से , पढ़ने की कोशिश करती हूं

समझ तो नहीं आते लेकिन याद आती है किशोरी सी मां

इन पन्नों को पढ़ती हुई

और ये जो बिना कवर की डायरी है ना इसमें दादी ने उतारी थी पसंदो की रेसिपी

कहा था हम लिख जाएंगे सब कभी जो तुम्हें बनाना हो।

हां जानती हूं कोई नहीं खाता अब पसंदे पर 

इसमें दिखती हैं वो बालकनी में बैठी 

अपने झुर्रीदार कांपते हाथों से लिखती जाती थी पूरी दोपहरी

और ये पापा की डायरी

इसमें में उतरे हुएं है उनके पसंदीदा शेर 

और दिखते हैं वो किशोर से उमंगों से भरे 

होश संभालते 

इसी से जाना था उन्हें जितना जाना 

पढ़ कर लगता था अच्छा वो भी ऐसे थे

कितने रोमांच और रोमांस से भरे 

इसी के आखिरी पन्ने पर एक शाम उतरी है 

जब अपनी गुल्लक से उन्हें दिए हुए पैसों का हिसाब

मैने लिखा था और बकायदा दस्तखत करवाए थे उनसे कि पूरे दो रुपए उन्हें देने हैं, मेरे।

सुनो कबाड़ नहीं है, अब ढलती उम्र में याद आता बचपन है ये ।

पहले प्यार का अहसास है, मां दादी का आशीर्वाद है ।

सुनो!, इसे कबाड़ मत कहना, मेरा बीता कल है ये।

मेरी निजी धरोहर है ये। मेरा इतिहास है ये।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Friday, September 8, 2023

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी

 एक बात अनकही सी कहे जा रहे है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


लम्हा लम्हा साथ बैठे शाम गुजरती जा रही है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


काम निकाल कर मिलने के जो बहाने बना रहे हैं

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


नजरें चुरा रहे हैं वो जिस बेचैनी को छिपा रहे हैं 

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


चलने को दोनो कहते हैं फिर भी देर किए जा रहे है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


ये जो वक्त बेवक्त की गुफ्तगू  में जो कर रहे इशारे हैं 

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Wednesday, September 6, 2023

नाम में क्या रक्खा है?

 नाम में क्या रक्खा है?

कुछ रख दो।


नहीं नहीं ऐसे कैसे

नाम है तो पहचान है ना

बिना नाम पहचान कैसे 

कुछ भी कह लोगे क्या?


नाम से मान बढ़ता है

कितना अजीब होगा ना 

नाम अनुचित हो पुकार का हो 

टीटू, छोटू कुछ

इसलिए कहती हूं बदल डालो।


अच्छा सा सुंदर सा

सही नाम ना हो तो 

भाव ना मिलेगा 

कभी सुना है किसी धनाढ्य का नाम 

छोटू बंटी जैसा कुछ?

लेकिन हम तो...


उहूं नाम बदलेंगे तो पहचान बदलेगी

वो जो गली के आगे खुली नाली है ना 

किसी का ध्यान नहीं जाएगा उस पर

लगेगा किसी बड़ी कोठी से हो।

अरे! तो क्या हुआ खाने को कमाने को ना है

नाम रखो बड़ा सा जोरदार सा।

कोई पूछेगा ही नहीं,

बस मान सम्मान के लिए 

इतना ही तो चाहिए।


कहो तो रेडियो टी वी में चलवा दें,

नाम के आगे सुश्री सुकुमार लगवा दें

आगे डागदर उकील कुछ लिखवा दें।

कोई नही पूछेगा,कितनी उधारी चढ़ गई

उम्र के सत्तर पिचहतर सालों में?

बस एक बड़ी सी तख्ती लटका देंगे,

थोड़ा लाइट वाइट लगवा देंगे ।


ना ना अरे!घर के आगे सड़कों पर ठेला ना लगाना ।

वो सुखिया के घर के आगे बहुत गंदगी है,

गरीब की बस्ती है,

कुछ लीपा पोती कर दो,

चलो एक ऊंची दीवार खड़ी कर दो,

उस पर खूब चित्रकारी कर दो।

बस काम हो जाएगा।


नाम में बस वजन होना चाहिए 

क्या नही हो सकता।

इसलिए नाम सोच समझ कर बदल डालो।

बस मान सम्मान के लिए 

इतना ही तो चाहिए।


आखिर घर में भी तो चद्दर गिलाफ पर्दे बदलते हो ना

जो मन आए सो बदल दो 

लगे तो तुम भी थोड़े विकसित हो।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू