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Sunday, December 29, 2013

मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले

मैंने तो  चलना ही था इस डगर पर अकेले ही
तुमने क्योंकर पुकार लिया यूँही
किसी अतीत के कोने से आकर दे दी दस्तक
मेरे मन के अंधेरो पर अपने उजालों  की

मेरे बिखरे मन को तुम आज क्यों समेटना चाहते हो
अपने वक्ष में क्यों मेरा वजूद बसाना चाहते हो
क्यों जकड़ना चाहते हो मुझे अपने बाज़ुओं में
मैं तो रो ही रही थी बरसों से हर बरसात में
तुम किसलिए  अब मुझे अपना कांधा  देना चाहते हो
ओ! आनेवाले अजनबी तुम क्यों मुझसे परिचित होना चाहते हो
मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले
तुम क्यों मेरा साथ देना चाहते हो

लौट जाओ ,
यहाँ बहुत कंटक है मन के भीतर
इनमे कैसे फूल खिलेंगे
मन में जो अब संवरते नही उन बेरंग मौसमों में कैसे रंग भरेंगे
तुम  थाम  तो रहे हो मेरा हाथ हम कैसे संग चलेंगे
तुम्हारे रास्तों पर फुलवारियां है
मेरे रास्ते बीहड़ो की ओर जातें  हैं
तुम लौट जाओ यहीं से
मेरे पास पाने को कुछ भी नही है
और तुम्हारे पास खोने को है बहुत कुछ
मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले
मनीषा

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