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Tuesday, August 18, 2015

चलो बंद करे द्वार प्रतीक्षा के

चलो बंद करे द्वार प्रतीक्षा के
लौट चले हम फिर अपनी अपनी दुनिया में
ना पट  तुम थपथपाना
ना मैं राह  तकूँ
अब मत पुकारना तुम
मुझे अपनी तन्हाईयों में
और मैं खुद को भूलूँ तुम्हे भुला देने में
मनीषा 

Saturday, August 15, 2015

बरस बाद फिर वही दिन आया

बरस बाद फिर वही दिन आया
आज सबको अपना वतन याद आया
जश्न -ए -आज़ादी मनाई सबने
एक बार फिर सबको इतिहास याद आया
अलमारी में रखा खादी का कुरता पायजामा 
कड़क इस्त्री हो इतराता बाहर आया
हर दरो दीवार पर सजा तिरंगा
शाम तक सड़कों पर फिर गिरा पाया
किसी को गांधी किसी को भगत सिंह याद आया
किसी ने सीधा तो फिर किसी ने उल्टा ही तिरंगा लहराया
कितने भूले बिसरों को खबरों की तरह
कारगिल युद्द और अट्टारी बॉर्डर याद आया
जो खा गया है दीमक की तरह मुल्क को
वो भी आज शहीद-ए -मज़ार पर फूल चढ़ा आया
मनीषा

जिन कंधों ने संगीन उठाई उनके साथ ही द्रोह हुआ

जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ
उस पर उनके अपने ही
आज हाथ उठाते है
सम्मान कभी मिलना था जिन्हें
 घूँट अपमान का पी रह जाते हैं
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

अपना ही अधिकार मांगना
हो अपराध कब से गया
तिरंगा जिस के शव का हो अधिकार
वह इतना विवश क्यों हो गया
देश के पूर्व प्रहरी को
जो आँख दिखाते हैँ
याद करें कभी उसकी निगरानी में
सपने सुखद सजाते थे
जिन कंधों ने संगीन उठाई
उम्र के बोझ तले झुके जाते हैं


सीमाओं की रक्षा के लिए उसने
जीवन भर संघर्ष किया
घर जो लौटा तो पाया
भाई ने भाई से भेद किया
जिस घर गांव की रक्षा में
उसने अपना सर्वस्व दिया
वहीं कभी नदिर ने कभी नस्जिद ने
एक दूजे को ख़ाक किया
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

हंस कर उसने हर वेदना में
जिनका साथ दिया
उसी देशवासी ने
उससे कैसा घात किया
नेताओं की बपौती
आज उसका देश हुआ
आज  रूपया हर बात में सर्वोपरि हुआ
उसने जाना उसके बलिदान का मूल्य
कितना अब क्षीण हुआ
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

मनीषा

है ये देश अपना इस पर गर्व ज़रूरी है





है ये देश अपना इस पर गर्व ज़रूरी है
हो संकट कितना ही गहन पर प्रयास ज़रूरी है
बहुत कुछ काला है यहाँ
माना है बहुत घोटाला यहाँ 
इन अंधेरो में दीप जलाना ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर इतराना ज़रूरी है

आरोप प्रत्यारोप है आम यहां
संसंद में है रोज़ करतब यहां
इन गलियारों में सच को दोहराना ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर इतराना ज़रूरी है
धर्म के हैं विविध रंग यहाँ
ढोंग का भी लगा नित बाज़ार यहाँ
इंसा का इंसा पर विश्वास ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर इतराना ज़रूरी है

आसमानों सी ऊँची उड़ान यहाँ
बीती सदियोँ का है ज्ञान यहाँ
बल -शक्ति से दुश्मन का दिल दहलाना भी ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर इतराना ज़रूरी है

रंग केसरिया भी शान यहाँ
हरे रंग का भी है मान यहाँ
अपने सब रंग बिसरा,लहराना एक तिरंगा ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर इतराना ज़रूरी है
है ये देश अपना इस पर गर्व ज़रूरी है
हो संकट कितना ही गहन पर प्रयास ज़रूरी है
मनीषा

Monday, August 10, 2015

जिनकी नज़रों से देखी थी दुनिया

जिनकी नज़रों से देखी थी दुनिया कभी 
उन्ही को नज़रे चुराते देखा है 
जिनके कंधे पर रख सर रोया है ज़माना 
उन्ही को आंसू छिपाते देखा है 
जिनके दरवाज़े से ना लौटा था कोई हाथ खाली 
उन्ही से दुनिया को दामन बचाते देखा है 
जिन्होंने झेले है बदलते मौसमों को मुस्कुराते 
हमने तूफानों में उन्ही पुराने दरख्तों को 
लड़खड़ाते देखा है 
मनीषा

Sunday, August 9, 2015

शब्द मेरे, राग यह धरा सुनाती है

शब्द मेरे,  राग यह धरा सुनाती है
हौले हौले मेरे तुम्हारे संग गुनगुनाती है
सुनो, धरती गाती  है

तरुदल की हरियाली में
कभी पुष्प  की लालिमा में
भंवरों की मदमस्त गुंजन संग
पंछियों की सुर ताल में
धीम धीमे मुस्काती है
सुनो धरती गाती है


निर्झर के वैरागी गान में
सरिता  के शांत स्वर में
वादी की हवाओं के संग
मेघों के चपल स्वर में
धीमे  धीमे मुस्काती है
सुनो धरती गाती है


गर्मी की भीष्म उष्मा में
सर्दियों की गहन धुंध में
सावन की पहली बारिश के संग
कभी पतझर के रूठे स्वर में
धीमे  धीमे मुस्काती है
सुनो धरती गाती है

शब्द मेरे,  राग यह धरा सुनाती है
हौले हौले मेरे तुम्हारे संग गुनगुनाती है
सुनो, धरती गाती  है
मनीषा 

Friday, August 7, 2015

मेरी तरह भटक रही है

मेरी तरह भटक रही है आरज़ूऐं  मेरी
जाने किन सितारों तले मिलेंगी राहते मेरी
किस राह से पूछूँ  अपनी मंज़िलों का पता
क़ज़ा में लिखी ना हो 'गर खुदा ने ही पनाहें तेरी
मनीषा 

Wednesday, August 5, 2015

इतना ही सा तो है मेरा घर संसार

दाल चावल रोटी चपाती में
लिपटी मेरी कविता सारी
हल्दी नून और जीरे के छौंक ने
सिखाई मुझे परिभाषा सारी
उबलते दूध ने दिया मुझे दोस्ती का सार
तो पाया परसी थाली में जीवन का सार
चुटकी भर  हींग के तड़के सी पाई मैंने कशिश
कटोरी भर मीठे हलुवे सा मिला सबका प्यार
इतना ही सा तो है मेरा घर संसार
मनीषा

हथेली पर उतरी धूप का एक टुकड़ा

 हथेली पर उतरी धूप का एक टुकड़ा
या है ये बीते लम्हों का एक कतरा
आज में कल थोड़ा थोड़ा समाया हुआ
और कल में आज थोड़ा सा बिसराया हुआ
हथेली पर मेरी सुनहली  मेहँदी सा रच गया
धूप  का ये नन्हा सा कतरा
नभ  के आशीष सा मन में उतर  गया
अकेली सी बैठी थी मैं एक सदी से
मुझ अनजानी  से पहचान कर गया
हंस कर जाने कितनी बाते कर गया

मनीषा