याद की तश्तरी में चाँद परोसे बैठी हूँ
मैं दिल में एक लम्हा समेटे बैठी हूँ
तू खींच ज़मीं पर लक्ष्मण रेखाएँ
मैं सारी बेड़ियाँ खोले बैठी हूँ
तुझे सौंप कर छाँव की पनाहें
मैं आग का प्याला थामे बैठी हूँ
तुझे मंज़ूर होंगी संस्कृति की दुहाईयाँ
मैं इतिहास जनने बैठी हूँ
मनीषा
मैं दिल में एक लम्हा समेटे बैठी हूँ
तू खींच ज़मीं पर लक्ष्मण रेखाएँ
मैं सारी बेड़ियाँ खोले बैठी हूँ
तुझे सौंप कर छाँव की पनाहें
मैं आग का प्याला थामे बैठी हूँ
तुझे मंज़ूर होंगी संस्कृति की दुहाईयाँ
मैं इतिहास जनने बैठी हूँ
मनीषा
No comments:
Post a Comment