रोज़ सुबह एक इरादा करती हूँ
किरणों से एक वादा करती हूँ
दिन उगता है रंजिशे लिए और तपिश से लड़ती हूँ
शाम के ढलते ढलते भीतर तक झुलस जाती हूँ
जब रात गहराती है और आंगन में चाँद को पाती हूँ
मेरी दिन भर की थकन तेरी बातों में भूल जाती हूँ
मनीषा
किरणों से एक वादा करती हूँ
दिन उगता है रंजिशे लिए और तपिश से लड़ती हूँ
शाम के ढलते ढलते भीतर तक झुलस जाती हूँ
जब रात गहराती है और आंगन में चाँद को पाती हूँ
मेरी दिन भर की थकन तेरी बातों में भूल जाती हूँ
मनीषा
No comments:
Post a Comment