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Monday, April 21, 2014

इक धूप का टुकड़ा

इस गर्म दुपहरी में
इक धूप का टुकड़ा
ज़िद से आ बैठा है
मेरे कमरे की दीवार पर
परदे के परदे से
छिपता हुआ
पीपर के उस हिलते
पात का जैसे कोई
संदेसा ले आया है
बार बार सोए बाबा की
पीठ सहलाता है
हौले से
और बाबा अनमने से
करवट बदलते है
देह पर रखी चादर
कुछ और ऊपर
खींच लेते है
धीरे धीरे सरकता सा कैसा
अधिकार जमाता है
सिमटने से पहले
कमरे के भीतर फैले अंधियार में
जगमगाता है
नटखट सा बार बार सताता है
कैसे धीरे से जगाता है
नींद उचटाता है
जैसे तुम्हारी तरह
जाने से पहले
इक बार चूम कर
फिर आने का वादा करता है
मनीषा

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