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Thursday, December 19, 2013

टुकड़ा टुकड़ा धूप

टुकड़ा टुकड़ा धूप जब आँगन में आती है 
माँ हर टुकड़े पर रख देती है 
एक एक थाल 
कोई भीगे तिल से भरा 
कोई पापड़, कोई बड़ियों से भरा 
और फिर चुन कर एक टुकड़ा धूप
बैठ जाती है वह स्वयं भी
धीरे धीरे उसके हाथ बुनते हैं
नरम नरम ऊनी स्वेटर
कभी छज्जे पर खुल के आती धूप में
वो फैला देती है निचोड़ कर कपड़े
और किसी पुरानी सूती धोती से
ढक कर रख देती है
ताज़ी तोड़ी सेवइयां
एक समय था जब माँ को
धूप बटोरनी नहीं पड़ती थी
खुले आँगन में धूप नाचती फिरती थी
तब हमे धूप में लिटा कर माँ
धीमी धीमी बहती धार में
कपड़े धोया करती थी
फिर पता नहीं कब हम बड़े हो गए
इसने कि धूप भरा आँगन छोटा पड़ गया
अपने आँगन से , नन्हे से आँगन आँगन से
निकल भागे स्कूलों , कॉलेजों , दफतरों की ओर
और ना जाने कहाँ से उग आईं हमारे आंगन
के चारों तरफ
आकाश छूने को कसमसाती ये बिल्डिंगे
धूप अब किसी छिद्र से झाँकते
आकाश के टुकड़े से टपक भर पड़ती है आँगन में
और माँ अपने खटोले पर बैठे बैठे
ऊन के फंदों के बीच
टुकड़ा टुकड़ा धूप चुनती रहती है
कभी गीले कपड़ों के लिए
कभी आचार के लिए
कभी बड़ियों तो कभी पापड़ के लिए
वह सेंकती रहती है
उम्र से पके अपने बाल और कुम्हलाती देह
उस टुकड़ा टुकड़ा धूप से
जो अब आंगन में टपक भर पड़ती है

by me मनीषा
read this in a kavi sammelan long back and it was much appreciated by everyone

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