Pages

Wednesday, December 7, 2016

माँ ने सब सिखाया

अंगुली पकड़ चलना सिखाया
रोते रोते हँसना सिखाया
पाँव के झूले पर बोलना सिखाया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया
लोरी सुना सुना सोना सिखाया
कहानी कह कह कर खाना सिखाया
तो चपत लगा कर बाल गूथना सिखाया
कभी प्यार से तेल लगाना बताया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया

बहला फुसला कर पढ़ना सिखाया
इक इक अक्षर बना लिखना सिखाया
चोरी से आँख दिखा कर से आदर सिखाया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया
चूड़ी की खनक ताल पर रोटी बेलना सिखाया
हल्दी नमक मिर्च का सही अंदाज़ सिखाया
बन अन्नपूर्णा मिलता है जो सन्तोष सिखाया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया
जीवन संघर्षों से जूझना सिखाया
हार कर फिर फिर फिर जीतना सिखाया
मन का हौसला अपने ऊपर विश्वास सिखाया
अहं से ऊपर होता है सबसे प्यार सिखाया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया
साँझ ढले तुलसी को जल घर को लौ देना सिखाया
मेरे विद्रोही मन को व्रत उपवास रीति रिवाज़ सिखाया
कभी प्यार से कभी डाँट से दुनियावी व्यहार सिखाया
माँ ने सब सिखाया
सिर्फ अपने बिन जीना नहीँ सिखाया
मनीषा


Monday, August 15, 2016

नेताजी

नेताजी से पूछ बैठा
पंद्रह अगस्त की पूर्व सन्ध्या पर एक पत्रकार
नेताजी आपके राज में विकास की स्थिति बतलाइये
मुस्कुरा के बोले नेताजी
दो ही बरस में मेरे घर में हुआ  सुपुत्र विकास
और उसके एक ही साल में आई है पुत्री
नाम रक्खा है उसका तरक्की
आप अगले प्रश्न पर आइए
पूछा फिर  ज़रा ज़ोर दे कर वह
नेताजी  प्रदेश में
आपने क्या कार्य किया कुछ बतलाइए
बोले फिर नेताजी अरे बुरबक
ये जो 50  किलोमीटर सड़क बनवाई
कई पुल  बनवाए दिखता नहीं तुझे
पत्रकार ने फ़िर उछाला  एक तंज
जी वही सड़क नेताजी जिस पर अभी हुआ है
एक कन्या के साथ दुःसाहस ?
नेताजी ! ज़रा यहाँ लॉ  और आर्डर की
स्थिति पर नज़र दौड़ाइए कुछ बतलाइए
नेताजी बोले एक आध किस्सा तो इतने
बड़े प्रदेश में  चलता है
बाकि घर में लॉ ही नही
आर्डर भी
मेरी श्रीमती का ही चलता है
मनीषा 

Tuesday, August 2, 2016

इन्साफ को कुछ मरोङा है

इन्साफ को कुछ मरोङा है
इन्सान भी तो कुछ टेढ़ा है

शर्म मर गई आँखों की
आखिर हमने उसके कातिल को छोङा है
सबने सेकी अपनी रोटी
किस्सा कुछ तेरा कुछ मेरा है
वादों इरादों मे फिसल गए
दोष कुछ तेरा कुछ मेरा है
कौन उठाए अब गाँडीव
सबको रोटी के सवाल ने घेरा है
आज खबर है पहले पन्ने की
कल तुझे रद्दी में तुलना है
उस पर बीते वो जाने मेरी मैं
माफ कर मुझे नींद ने घेरा है
मनीषा

Sunday, July 31, 2016

देखने के आयाम अलग हैं

देखने के आयाम अलग हैं
बातचीत सब व्यवहार अलग हैं
मन कैसे रमाए धूनी
चाकी के दो पाट अलग हैं

दिशा उत्तर है या दक्खिन
आसमां को कहाँ मालूम
ये तो जंमीं से देखने वालों के
मिज़ाज़ अलग हैं

सागर अपना लेता है
हर बहती धारा को
उसे क्या मालूम उसमे उतरने वाले
दरिया अलग हैं 

बात तो कुछ नई नहीं
जो चेहरे की रंगत उतर जाए
सुना है अब उनके कहने के
कुछ अंदाज़ अलग हैं

मैं अब भी मुजरिम हूँ
उसकी बुलाई हर अदालत में
बस अब मुझ पर लगाए
इल्ज़ामात अलग हैं

वो मेरी रुसवाई पर
खुश हो सकता है 
मगर मेरे जीने के मरने के
सब अंदाज़ अलग हैं

मेरे कातिल ने ज़ाया किए
यूँही तमाम खँजर
मुझे चुभ जाऐं ऐसे
वो नश्तर ही अलग हैं

हम भी मिल जाते
अपने नसीब से
मगर हमपर  जो गुज़र गए
वो तूफ़ान  अलग हैं

दौर -ए- मुश्किल गुज़रा 
कुछ उन पर कुछ हम पर भी
बस अपने अपने 
मुस्कुराने के अंदाज़ अलग हैं

मनीषा

Thursday, July 28, 2016

एक मुलाकात ज़रूरी है

तुझसे बिछङने के लिए एक मुलाकात ज़रूरी है
तुझे भूल जाने के लिए एक उम्र अधूरी है

मंज़िल तक पहुँचे कदम ऐसा एक सफर ज़रूरी है
राहे गुज़र पर हर कदम हमसफ़र ज़रूरी है

पथरीली इन राहों पर तेरी छांव ज़रूरी है
जीने के लिए इन आँखों में एक ख्वाब ज़रूरी है

ऐसा तो नहीं इश्क मे हर दौर कुछ रंजिशें ज़रूरी हैं
मुझे सुनने के लिए तेरी खामोशियाँ भी ज़रूरी हैं

तेरा ज़िक्र आए तो मेरा अनजान बन जाना ज़रूरी है
इश्क के दामन से ये दाग बचाना भी ज़रूरी है

महफिल महफिल मुस्काना भी ज़रूरी है
दुनिया के कुछ दस्तूर निभाना भी ज़रूरी है

मनीषा

Wednesday, July 27, 2016

हवा के झोंके सा

हवा के झोंके सा वो आया 
और मुझे छु कर गुजर गया
मै उसके अहसास की ओस मे 
भीगती रही देर तलक

उसकी बातें उसकी मुस्कान
तैरती रही देर तक घर में
हर पल मे जैसे गुंथ गया
उसके होने का बस एक वो पल
 उसका चेहरा छप  सा गया 
मेरे तकिए की गोद  में 
और सिमटी चादर की सलवटों से 
अब भी उठ रही है उसकी  महक 

वो जा कर  भी मेरे दर से 
जा नहीं पाया अब तलक 
मनीषा

Sunday, June 19, 2016

याद आते हैं पापा



एक थपकी एक दुलार
एक स्नेहिल कांधे से 
याद आते हैं पापा
कभी पुचकार कभी डांट
एक मजबूत आधार से
याद आते हैं पापा


थोङे से चुप
थोङे से शौकीन
माॅ की झिङकी से
बचाते याद आते हैं पापा
मम्मी को चिढाते
हम से ही रेस लगाते
अपने गम छिपाते
मुस्कुराते याद आते हैं पापा
हमारा हौसला बढाते
हमे सौ दस्तूर समझाते
भाई की परछाई मे नजर 
आते हैं पापा
मनीषा
19/06/2016

Sunday, April 24, 2016

मेरी व्यथा को अभी सोने दो

मेरी व्यथा को अभी सोने दो
छाई है अलसाई चाँदनी
मुझे मधु-मस्त रहने दो
जागा है भाव सागर
लहरों को अभी मचलने दो
कब कब आती है पूनो
अमा रही अब तक जीवन पर छाई
निकल आया है ये कैसे
भूले से आज उजास
ज़रा रंगोली सजोने दो
स्थिर जल में कम्पन
ज्वार उठा है तो जल चढ़ने दो
रंग जाए आज धरा
इतना रंग बिखरने दो
बांधो तोरण द्वार
दो ढोलक पर थाप
गा लो मंगल गान
नभ पर मेहंदी रचने दो
मेरी व्यथा को अभी सोने दो
मनीषा

Tuesday, April 12, 2016

एक झूठ

एक झूठ वो सुनता है
एक झूठ मैं कहती हूँ
इस तरह चलती है ज़िंदगी
सच को सुनने और कहने
की ज़रूरत नहीं
सिर्फ समझने की है
सच तो इस कैंची सा है
सब रिश्तों पर
इसलिए मूक रह जाना उचित
और फिर ज़रूरत है
एक झूठ कहने की
और एक झूठ सुनने की
और कुछ इस तरह
गुज़रती  है ज़िंदगी
मनीषा 

उन्हें अब

इतने  सितारे हैं उनके दामन पर
उन्हें हमारे पांव के छाले नहीं दिखते
इतने उजाले  हैं उनके ठौर
उन्हें अब हमारे अँधेरे नहीं दिखते

इतने फ़िदा  हैं वो हमारी मुस्कानों पर
उन्हें हमारी पलको के आंसू नहीं दिखते
इतने गुमराह हैं वो हमारी झूठी तसल्लियों पर
उनको अब हमारे सच नहीं दिखते
मनीषा 

Tuesday, March 22, 2016

जो तुम संग खेली तो श्याम मेरी होली है

रंग अबीर उड़े ,उड़े गुलाल
भर पिचकारी सताए सखियों संग ग्वाल
जो तुम संग खेलूं तो श्याम मेरी होली है। 

भीजा आँचर भीजी  मोरी चुनरी लाल
भीजा अंबर भीजा जग सारा विशाल
जो तुम संग भीजूं तो श्याम मेरी होली है।

महके टेसू महके चंदन गुलाल
महके बृज  में सभी  गोपी ' ग्वाल
जो तुम संग महकूँ तो श्याम मेरी होली है।

वंशी की धुन पर नाचे ग्वाल बाल
झूमे गोपियों संग राधा मतवाली
जो तुम संग नाचूँ  मैं तो श्याम मेरी होली है
मनीषा

मार्च 2016




Sunday, January 24, 2016

काँच

उसने उठाए थे जब टुकड़े मेरे 
सिमट आई थी मैं 
इस बात से अनजान 
की काँच को फेंकने से पहले 
समेटना पड़ता है 
मनीषा

सच कहाँ मिलता है

सच और पूरा सच कहाँ मिलता है 
सिर्फ कफन ओढ़ने से कब खुदा मिलता है 
खुद से कुछ इस तरह बिछड़ चुके हैं कि 
अपने चेहरे पर भी अब नकाब ही मिलता है 
झूठ की आदत हो चली है कुछ इस तरह 
अब मिलता है सच भी तो बनावट सा लगता है
घर के चूल्हे ने बुझा दी है दिलों से सुलगती आंच
पराई आग मे हर शख्स अपनी ही रोटियाँ सेंकता दिखता है
मनीषा

Thursday, January 7, 2016

कांटों में खिलना सीख लिया

कांटों में खिलना सीख लिया
अब तेरे बिन भी जीना सीख लिया
दो कमरों में है दूरी ही कितनी
खुद को बहलाना सीख लिया 
बहुत रोए तेरी खातिर कभी
अब
हमने भी मुस्काना सीख लिया
खो जाते हैं साये भी अंधेरों में
मन को समझाना सीख लिया
खो कर तुझे इन बंजर राहों में
अब
हमने खुद को पाना सीख लिया
मनीषा

Wednesday, January 6, 2016

इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ

क्या ये इतना मुश्किल है ... ?

कभी तो हिन्दू मुसलमां  से  परे इन्सां  बन जाएं
मैं तुम्हारी आयतें पढ़ूँ  तुम मेरी गीता  कंठस्थ कर लो
जिस भूमि पर गिरा लहू कुछ मेरा कुछ तुम्हारा
चलो उस भूमि पर कुछ धान लगाएं
संगीने छोड़ आज एक बार हल उठाएं
ये जो जलाती  है हर बस्ती हर घर को निसदिन
उस लगी आग को मिल बुझाएं
जो बीत चुकी सदियों पहले वो बीती बिसरायें
आज इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ
मनीषा 

Sunday, January 3, 2016

बदलेगा सैयाद इंतजार में परिन्दे बैठे हैं

हम भी बेज़ार बैठे हैं 
उनके झूठ पर हैरान बैठे हैं 
मुल्क में हैं मुफलिसी बहुत 
फिर भी नौजवान बेकार बैठे हैं
माना खूबसूरत है ख्याल आपका 
पर किस गफलत में आप बैठे हैं
दे कर कातिल के हाथ में खंज़र
गरदन झुकाये मज़लूम बैठे हैं
ले कर गुहार न्याय की हाकिमों से
लोग फिर धरने पर बैठे हैं
लुट गया इस बहार में चमन
बदलेगा सय्याद
 इंतजार में परिन्दे बैठे हैं
मनीषा