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Friday, November 20, 2015

माँ तू बहुत याद आती है

हर मौके पर कमी खल जाती है
माँ तू  बहुत याद आती है
सुख में सोचती हूँ तू कितना खुश होती
दुःख में तेरी गोदी याद आती है
लगती है पांव में ठोकर तो
उफ़ तेरी दुहाई निकल आती है
जब आती है किसी बात पे हँसी
तेरी ही कसम काम आती है
सुनती हूँ जब अपने खाने की तारीफ़
तो जो तूने खाई थी बड़े प्यार से
वो जली रोटी याद आती है
थक कर जब सोती है मेरी बेटी
तो तेरी ही लोरी  याद आती है
जिनसे फुसला लेती तू मुझे
तेरी वो कहानियाँ याद आती हैं
मेरे देर से आने पर तेरी बाल्कनी में टहलने
की वो आदत आज भी आँखे नम कर जाती है
सच अब गलतियों पर जो नही पड़ती
ज़ोर की फटकार वो याद आती है
जो तू समझ जाती थी मेरे बिना कहे
वो हर बात याद आती है
मान सम्मान या व्यवहार
हर बात अनकही रह जाती है
तेरे बिना अब सच माँ
हर ख़ुशी अधूरी ही  रह जाती है

मनीषा
20 /11 /2015


घर अब मकान हो गया है

तेरे जाने से सब उदास हो गया है
जिसे बनाया संवारा करती थी तू कभी
वो घर अब मकान हो गया है

दरवाज़े पर कोई पद्चाप नही है
छत पर पड़ी दरार वहीं है
उस आखिरी दीपावली पर लगाया थाप वहीं है
मुंडेर पर पड़ा अधजला दीप भी अब उदास हो गया है
वो घर अब मकान हो गया है

कोई डोलियां उतरती नहीं
शहनाइयाँ अब वहां बजती नहीं
ढोलक पर थाप पड़े एक अरसा हो गया है
देहरी पर  खिलखिलाहट  गूँजे एक ज़माना हो गया है
 वो घर अब एक मकान हो गया है

दीवारें अब धीरे धीरे झरने लगी हैं
गुलाबी फ़र्श पर पड़ी काई अब छुटती नहीं है
सीढ़ियों पर आने जाने  के निशां अब मिटने लगे हैं
तेरी यादों से भरा बेमोल आँगन बिकने को तैयार हो गया है
वो तेरा घर अब मकान हो गया है
मनीषा
20 /11 / 2015