Pages

Sunday, December 22, 2013

धान सी मैं

आई थी मैं उगने
धान सी
तुम्हारी अनजानी ,अनचीन्ही धरती पर
चाहती थी गहरे पैठ कर तुम्हारे भीतर
अपनी जड़े जमा लेना
पर रिश्तों की  धूप  बहुत प्रखर थी शायद
जो जीवन की  भोर भी
जेठ कि दुपहरी सी प्रतीत होती रही
क्या तुम्हारी प्रीत का
साया झीना था
या मेरी ही जड़े खोखली ?
किससे  पूछूँ  और क्या?
क्या कहीं उत्तर है भी कहीं ?

मनीषा 

No comments:

Post a Comment