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Thursday, June 26, 2014

इक गुनाह का पल दे दो

हक़ तो नहीं  कि  तुम्हे
अपना  कह सकूँ
तुम्हारी हो रहूँ  इतना
गुरूर  भी नही

अपनी पनाहों में
इक  गुनाह का पल दे दो
बस दुआ का इक  हक दे दो
मेरी रूह को आ जाए चैन
'गर मेरे ज़नाजे को कांधा दे दो

मनीषा 

Thursday, June 19, 2014

तुम्हारी देहरी तक जाते

तुम्हारी देहरी तक जाते
ये पग मेरे हार जाते
बिन अधिकार कैसे आऊँगी
वो ड्योढ़ी न लाँघ पाऊँगी

तुम से जो प्यार मेरा है
ये लगाव अजब अलबेला है
कभी ना शब्दों में  ढाल पाऊँगी
तुम को बिसार  भी ना पाऊँगी

मनीषा

देर कर के आने वाले मीत

देर कर के आने वाले मीत 
तुम लौट कर आए तो हो दस्तक देने 
पर इस खाली मकां में 
अब बचा ही क्या है 
खंडहर के सिवा 
जर्जर दीवारों को कितना 
सहलाओगे 
अब इन में रखा ही क्या है 
दरारों के सिवा 
पुकारते रहोगे नाम ले कर परिचय पुराने 
अब यहाँ बचा ही क्या है
सन्नाटों के सिवा

मनीषा

Monday, June 16, 2014

एक चिट्ठी पापा के नाम की...



उम्र के उस पड़ाव पर खोया था आपको 
जिसकी याद नही है मुझे खुद को 
बस सुनती आई हूँ बातें माँ से 
बुआ से, मौसी से, दादी से  आपके हर अपने से 

मुझ तीन माह की बच्ची को सुलाने को 
सड़कों  पर देर रात टहलते थे आप कैसे 
कंधा आपका चूस चूस कर दिया था मैंने लाल कैसे 
स्कूल में दस पैसे कैंटीन के लिए 
माँगने  भाग आती थी मैं  रोज़ कैसे
कुछ यादें है आपकी जैसे 

रोज़ रोज़ मेरा सहेलियों में आपका रुआब दिखा इतराना 
प्रेयर बंक कर आपके ऑफिस  में छुप जाना 
ऑफिस से थक  कर आना फिर तैराकी के लिए जाना
 वो भइया  के साथ रोज़ सुबह  दौड़ लगाना 
मुझे वो पहली बार बस में अकेले भेज देना 
और आपके वो लेक्चर 
इस कान से सुन उस कान  से निकल देना 
वो आपका कॉफी  फेंटना वो पुलाव बनाना
यार दोस्तों की महफ़िल सजाना 
धीमे से कुछ कह ठहाके बिखराना 
सच आज भी सबको याद आता है 

आज भी जब कोई मिलता है
जब कह आपकी बिटिया पुकारता है 
मन उसाँस भर रहा जाता है 
जाने विधाता क्या चाहता है 

कुछ प्यार के पुष्प आपने छोड़े है 
जो हमने बहुत प्यार से रखे हैं 
जाने उस पार क्या है 
इस पार तो बस केवल अहसास है..... इंतज़ार है 

मनीषा 

Tuesday, June 10, 2014

क्षणिक



तू जब नही था तो कोई कमी भी नही थी 
तेरे चले जाने से अब जाने ये कमी सी क्यों है 
मनीषा



जो बीती तेरे दामन में वो ज़िंदगी थी
बाकि हर लम्हा साँसें तो आनी जानी ही हैं
मनीषा