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Thursday, December 19, 2013

स्मृति

जाऊँगी दूर कहीं लौट कभी क्या पाऊँगी
चाहो तो पास तुम्हारेएक ख्वाब  सी रह जाऊँगी
ढूंढोगे तुम कभी और पुकारोगे मुझे तब
इन तारों भरे अम्बर में इक तारा बन छिप जाऊँगी
किसी दिन इक झोंके सी
हवा में महक सी छिप तुम्हें  छू जाऊँगी
कहीं बैठ जब ऊषा सुनहरे केश लहराएगी
सूरज की लाली बन तुम्हारे मृदु अधरों पर छा  जाऊँगी
बैठे होगे  जब  एकाकी तुम इक  साँझ किसी झूले पर
छज्जे पर गाती  चिड़िया के स्वर में सुर मिलाऊँगी
जब जगती में जीवन संचरित होगा
तुम्हारे मन के भावों में कल्पना सी लहराऊँगी
तुम्हारे कमरे की  खिड़की के सामने
तरु शिखा पर खेलती किरणों  सी
तुम्हारी निगाहों में उतर मुस्काऊँगी
ना लौट सकूं कभी इस देह व्यूह चक्र में
तो भी यूँ  ही सी इक मृदु  स्मृति बन
तुम्हारी आँखों के गीले कोरो में मुस्काऊँगी मैं

मनीषा 

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