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Friday, December 27, 2013

अनकही

एक अधूरी  कहानी
कुछ चुप से शब्द
छतें टापती  वो बातूनी आँखों
शरमा  कर झुकती  पलकें
और चहचहाते पक्षियों के पंखो के नीचे
फागुनी मौसम की अंगड़ाई में
कपकपाती अँगुलियों के पोरों  को  महसूस
करते दो हाथ
और अनजाने डर  का  वो नाज़ुक सा स्पंदन
बस यही तो
इतनी सी कहानी है
अनकही  अनबूझी पहेली सी
ज़िंदगी की

by me मनीषा


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