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Wednesday, January 30, 2013

मुझे गाँधी दिखता है




मुझे गाँधी दिखता  है 
चौराहों पर मूर्तिवत 
पुस्तकों  में छपा 
स्कूल की दीवारों पर चित्रित 
कभी कभी सभागारों में 
मैं उसे संसद की दीवारों पर भी 
देखती हूँ 
उसके उजले कपड़े  
कुछ काले दिलों पर भी चढ़े देखती हूँ 
उसकी टोपी सार्वजनिक हो गई है 
मैं देखती हूँ अब आम हो गई है 
दिल्ली में एक मैदान है उसके नाम 
हर शहर में एक सड़क  मिलती है गाँधी के नाम 
राजघाट पर भजनों  के बीच उसे श्रद्धांजली  चढ़ाते  हैं 
उसे भारतीय कह लोग गौरान्वित होते हैं 
देखती हूँ मैं उसे, और सोचती हूँ
वो  फ़क़ीर,  जो हर नोट पर छपा मिलता है 
उसे कहाँ ढूंढू , वो जीवन में कहाँ उतरता है 
गाँधी अब सिर्फ मिसालों  में सिमटा मिलता है 
भाषणों में कहा मिलता है 
अब गाँधी सिर्फ चौराहों पर सजा मिलता है 
साल में दो बार कलेंडर की 
तिथियों में छिपा मिलता है 

मनीषा 


चलो पुण्य तिथि है आज

चलो पुण्य  तिथि है आज , आज आँखे कुछ नम कर लें 
कोई था गाँधी भी आज याद कर लें 
त्यौहार सा मन है , आखिर छुट्टी है बहुत फुर्सत है 
चलो आज फिर  बापू को याद कर लें 
आज आँखे कुछ नम कर लें 

बहुत जलाई बसें , पुतले फूँके 
बहुत तोड़े हैं कारों  के शीशे
खाया बहुत जी भर  फाइलों  के भीतर 
आज मन को  कुछ शुद्ध कर लें 
चलो आज आँखे कुछ नम कर लें 
चलो फिर बापू को याद कर लें 

कहाँ पड़ा है वो खद्दर का चोला 
जाने कहाँ रख दी है वो उजली टोपी
सत्य के प्रयोग रखें हैं धूल  में दबे 
चलो पुरानी  अल्मारी  साफ़ कर लें
चलो आज आँखे कुछ नम कर लें 
चलो फिर बापू को याद कर लें 

बच्चो का मन है घूमने का 
राजघाट ही जाया जाए 
कोई था गाँधी , सादा, सरल 
धरती पर जन्मा एक देवता 
उन्हें भी बतलाया जाए 
चलो आज आँखे कुछ नम कर लें 
चलो फिर बापू को याद कर लें 

संकल्प लिया था बापू ने 
सत्य का अहिंसा का निर्वस्त्र रहने का 
जब तक एक तन भी भारत में नग्न रहे 
उसे भी याद कर लें 
शापिंग मॉल  के बाहर 
खड़े भारत को भी नमस्कार कर लें 
चलो आज आँखे कुछ नम कर लें 
चलो फिर बापू को याद कर लें 

मनीषा 

Monday, January 28, 2013

ये रातें हैं

ये रातें हैं मेरी सिर्फ मेरी 
मेरे संग मुस्कुराती हैं गाती  हैं 
और कभी रो देती हैं 
बाँटा  है मने खुद को , हाँ खुद को 
और तुम्हे , इन रातों के साथ 
जब पूर्व में उषा झाँकती  है 
मैं विभाजित हो जाती हूँ 
तुमसे, और  स्वयं  में  विभाजित 
इन रातों में ही तो मेरी और तुम्हारी पूर्णता है 
इनमे मैं स्वयमाब्द्ध हूँ -सम्पूर्ण 
कभी कभी इन अंतहीन रातों में 
सपने मुझसे मिलने आते हैं 
और भोर की  उजियाली  के संग 
ताश से बिखर जाते हैं 
मेरी इच्छा सी ही ये रातें 
ढल जाती हैं 
कभी मुझे थपकी दे सुलाती हैं 
कभी भोर तक बतियाती हैं 
और कभी मेरी ही सुनती हैं 
और मुझे सुनाती हैं 
इनके साथ बाँटती  हूँ मैं 
तुम्हे और खुद को 
तुम इन्हें नहीं जानते क्योंकि 
उजालों के अनुगामी तुम 
निंद्रा में खो जाते हो 
पर ये तुम से परिचित हैं 
तुम्हारे स्वर से परिचित हैं 
ये मुझे सुनती हैं 
मन गुनती हूँ संग  इनके 
कुछ अधूरे से रंगीन सपने 
इन रातों के साथ  मैं उगती हूँ 
सुबह तक ढल जाती हूँ 
आंसूओ में डूबी , खिलखिलाहटों से भरी 
गम्भीर सी, मैं स्वर मिश्रित कली  सुन्दर रातों में 
रोज दिन बीतते 
मैं चाँदनी  सी खिलती हूँ 
क्योंकि ये ही तो 
सुख सुख की साथी 
मेरी अभिन्न सखियाँ हैं 
मैं पाती  हूँ अपना आप  इनके  अंधेरों में 
और हर सुबह जग में  विलुप्त हो  जाती हूँ 

मनीषा 

Saturday, January 26, 2013

गुज़र जाते हैं

गुज़र जाते हैं हमारे बीच कितने 
अनकहे दिन अनकही  रातें 
कहो कब ख़त्म होंगी दीवारों से बातें 
नयन जब भी पा  जाते कुछ ऐसा 
जो हर्षित तुमको भी किया करता 
मन मचल जाता वहीं से 
तुमको पास बुलाने को 

पाँव   थम  जाते पर वहीँ कहीं 
बोल होंठो के कोरो पर ही घुट जाते 
प्यार कहीं गुम  हो जाता है 
जब 
यह क्रूर अहम  बीच  आ जाता है 
पहले तुम, के ख्याल में 
जीवन का मृदु क्षण गुम जाता है 

कितनी बीतीं स्मृतियाँ अतीत के 
पुलिंदों  में दफ़न  हुईं 
कितनी सूनी रातें सपनीली बातें 
सिर्फ करवटों में गुज़र गईं 
अब एक लम्बी सुनहली धूप चुराने का 
मन करता है 
चुटकी भर चाँदनी  बिखराने  का 
मन करता है 
शाम की इन उदास क्यारियों में 
एक नन्हा सुख उगाने का
 मन करता है 
आज फिर संग तुम्हारा पाने का 
मन करता है 

मनीषा 

Wednesday, January 23, 2013

रोज़ आती है एक रात मेरे मन में

रोज़ आती है एक रात मेरे मन में 
रोज़ उसे सूरज से तेरे भगाती हूँ 
रोज़ मन करता है मर जाने का 
रोज़ तेरे नाम पर जी जाती हूँ 

बहुत अँधेरा है यहाँ 
रौशनी तक कहीं  नज़र नही आती 
इतनी दूरियाँ  हैं 
सालों  की मजबूरियाँ हैं
 बीच में तेरे मेरे 
वक्त का एक दरिया है 
आँख मूँद भी लूँ  मैं तो भी 
मन के भीतर 
अब तेरी सूरत तक नज़र नही आती 

मन बंजारा रहने दो

मन बंजारा रहने दो 
मुझे अनजाना  रहने दो 

गीत मेरे अश्रु हैं 
मुझे  अनगाया  रहने दो 
मन बंजारा रहने दो
मुझे अनजाना  रहने दो 


अक्षर अक्षर कटती हूँ 
मुझे अनकहा रहने दो 
मन बंजारा रहने दो
मुझे अनजाना  रहने दो 

शब्दों का व्यापार है दुनिया 
मुझे अनजाया  रहने दो 
मन बंजारा रहने दो
मुझे अनजाना  रहने दो 

सपनों  से भारी पाँखे  है 
मुझे बिसराया रहने दो 
मन बंजारा रहने दो
मुझे अनजाना  रहने दो

भाव खोज लेंगे किनारे अपने
मुझे धारा ही रहने दो 
मन बंजारा रहने दो 
मुझे अनजाना रहने दो 

मन के लिए लिखती हूँ 
मुझे पराया रहने दो 
मन बंजारा रहने दो
मुझे अनजाना  रहने दो 
मनीषा 

Monday, January 21, 2013

युग-कवि

एक रात की बात थी 
छिपकली उदास थी 
एकटक मुझे घूरते हुए उसने कहा 
तुमने मुझ पर अभी तक क्यों नहीं कुछ लिखा 
क्या मेरा अस्तित्व तुम्हे नहीं दिखा 
जितने नए पुराने कवि  हैं 
उन्होनें मकोड़ो  को भी विषय बनाया है 
वर्ड्सवर्थ ने  भी मेरा गुण गाया  है 
तब तुम क्यों मेरी अवहेलना करती हो 
क्या मुझे किसी काबिल नही समझती हो 
युग -कवि  तुम कैसे बनोगी 
मुझ पर जब तक नहीं लिखोगी 
फिर क्या ,एकाएक 
युग कवि बनने  की साध मन में लहरा गई 
उसे तकते हुए उसकी बात नापते हुए 
मैंने पूछा ,
क्या सभी युग-कवि  छिपकली पर लिखते हैं 
जवाब मिला 
छिपकली से अधिक किसी विषय को वे नही चुनते हैं 
कहीं भी मुझे फिट कर दो 
किसी भी वर्ग का प्रतिनिधित्व ही  सौंप दो 
 पर कविता या कहानी का पात्र यूं ही नही कोई बनता 
मन में संशय फिर भी था 
मेरा प्रतिरोध फिर भी था 
विषय बनने  के लिए 
तुम्हें  उपहास का पात्र बनना होगा 
संघर्षों से गुज़रना  होगा 
कुछ करके दिखाना होगा 
या निरुपाय हो कर पछताना होगा 
कहने का अभिप्राय है बस इतना 
सामान्य से असमान्य बन कर ही रह जाना होगा 
छिपकली ने अपना कथन फिर दोहराया 
अपने निश्चय को द्रढ़ता से दोहराया 
सुनहरे चश्मे से मेरा भविष्य दिखलाया 
बोली 
हर साधारणता की भी अपनी कहानी होती है 
युग-कवि  तुम कैसे बन पाओगी  
यदि साधारणता में असाधारणता नहीं खोज पाओगी 
छिपकली की बात रास आ गई 
युग-कवि होने की साध मन में लहरा गई 
छिपकली पर ही कुछ  लिख डालने को कलम ललचा गई 
अब समस्या थी कि  कविता की छिपकली 
नेता है या अभिनेता है ,भोक्ता  है या उपभोक्ता है 
जनता है या जनार्दन है , शासक  है या दू:शासन  है 
लाजवंती है या आधुनिकता में रंगी दुमकटी  है 
भावपूर्ण  अभिव्यक्ति है  या फ़िल्मी गीत कोई चटक है 
यानि युग-कवि बनने का कौन सा सरल शार्ट कट है 
अब छिपकली पर ही छोड़ा चुनाव था 
यह उसका ही सुझाव था 
हमने अपने युग-कवि  बनने  की नींव डाली 
पूरी छिपकली ही कविता में संजो डाली 
बस तब से सुनहरे सपने देख रही हूँ 
कविता के पुलिंदे लिए सम्पादक खोज रही हूँ 
मुझे पूर्ण विश्वास  है आप भी पहचानेगे 
एक छिपकली का बलिदान यूँ  व्यर्थ ना जाने देंगे 
यूँ  व्यर्थ ना जाने देंगे 
मनीषा 

बच्चे अब जानते नहीं हैं

बच्चे अब जानते नहीं हैं 

किसी को पहचानते नहीं हैं 

कंप्यूटर पर खेलने में हैं तेज़ 
लाते हैं नंबर सौ में सौ पर एक 
आते ही स्कूल से कोचिंग  जाते हैं 
हाकी खेल है भारत का पता नही है 
धोनी जडेजा के क्रिकेट का है शौक भारी 
लंगड़ी टांग आइस पाइस  का लुत्फ़ जानते नहीं है 
बच्चे अब 
किसी को पहचानते नहीं हैं 


ज़िंदगी कैद है रंगीन तस्वीरों में सारी
मोबाइल पर आई है नई रिंगटोन कौन सी  ,
कब रिलीज़ होती है एल्बम कौन सी 
है जानकारी सारी 
जिन्दगी के इम्तहान में हो जाते हैं फेल 
घर पर आया है कौन जानते नहीं है 
बच्चे अब 
किसी को पहचानते नहीं हैं 

फेसबुक और ट्विटर पर फ्रेंड्स हैं अनेक 
आधे आधे शब्दों में पूरी बात कह लेते हैं  
कर लेते हैं चैटिंग  देश विदेश में रात सारी 
चाचा और मामा को जानते नहीं हैं 
पाँव  छूने में झिझक जाते हैं 
दादी नानी के किस्से जानते नहीं है 
बच्चे अब 
किसीको पहचानते नहीं हैं 

फास्ट फ़ूड ,फ़ास्ट कार फ़ास्ट लाइफ है पसंद 
मॉल  में कौन सा फ्लोर है किसका सब पता है 
नए प्ले स्टेशन के कण्ट्रोल की भी है जानकारी 
गेम पर नज़र गडाए हाँ हूँ में जवाब भर दे लेते हैं 
नाश्ते पर जल्दी जल्दी मूँह  में मैगी ठूस लेते हैं 
बच्चे अब
किसी को पहचानते नहीं हैं 
मनीषा 



Saturday, January 19, 2013

कवि तू कहता चल

कवि  तू कहता चल 
अपनी धुन मे रमता चल 
मन में सच का ताप लिए
 तू जलता चल 
चलता चल
कि  राह खुद मंजिल हो जाए 
चले साए ना साथ तो भी तू अकेला  चल 
कवि  तू कहता चल
अपनी धुन मे रमता चल

राह काटता जो 
कंटक भी है वही झेलता 
प्रथम पग 
इस भावी पगडंडी पर 
तू धरता  चल 
कवि  तू कहता चल
अपनी धुन मे रमता चल


कुंठाओं की सर्व शिराएँ  तू 
शब्द की शमशीरों से 
छिन्न भिन्न  करता चल 
इन अंधेरों में तू
 'दिनकर' बन उगता चल 
कवि  तू कहता चल
अपनी धुन मे रमता चल

यह मुर्दा बस्ती है
हर तरफ  फाका परस्ती है 
तू आजान लगता चल 
वंशी की धुन पर ताल मिलाता चल  
कवि  तू कहता चल
अपनी धुन मे रमता चल

अल्लाह और कुरान तुझे  माफ़ करेंगे
राम और गीत तुझे याद करेंगे 
तू कबीर की वाणी बनता चल 
तू धर हाथ पर शीश चलता चल 
कवि  तू कहता चल 
अपनी धुन मे रमता चल 


Monday, January 14, 2013

रिश्ते कमाएँ हैं

गौर से देखो हाथ खाली नहीं हैं 
जीवन भर बस रिश्ते कमाएँ  हैं 
जो मरने के बाद भी 
साथ चलते हैं वो मेरे कर्मों के साए हैं

या रब देना तो बस इतना देना
न'अश पर मेरी  पराई आँखों में भी 
एक आँसू  छलक जाए 

Tuesday, January 8, 2013

मन करता है


गुज़र जाते हैं हमारे बीच कितने 
अनकहे  दिन ,अनकही रातें 
कहो, कब तक करनी होंगी दीवारों से बातें?

नयन जब भी पा जाते कुछ ऐसा 
जो हर्षित तुमको भी किया करता 
मन मचल जाता वहीँ कहीं 
तुमको  पास बुलाने को 

कितनी संचित स्मृतियाँ अतीत के 
पुलिंदो में दफ़न हुईं  
कितनी सूनी रातें सपनीली बातें सिर्फ 
करवटों में गुज़र गईं 

अब एक लम्बी सुनहली धूप 
चुराने का मन करता है 
चुटकी भर चांदनी बिखराने का 
मन करता है 

शाम की इन उदास क्यारियों में 
एक नन्हा सा सुख उगाने को मन करता है 
आज संग तुम्हारा पाने का 
 मन करता है 
मनीषा 

टूटा है कुछ -पर क्या?, सपना


सपने टूटते हैं 
तारों की तरह 
सपने टूटने पर 
आवाज़ नही होती 
कभी सुनो तो ,बस 
फुट पड़ती है 
धीमी सी सिसकी 
खिलखिलाते ,मुस्कुराते होटों के कोरों से कहीं 
देखो तो, 
शायद चमक जाएँ 
पलकों तक आ, सूख गए आँसू 
और जानो तो, मस्त चेहरे पर 
नज़र आ जाएँगी 
दर्द की गहरी काली  लकीरें 
उस हँसते चेहरे पर 
खिले चुटकुलों के बीच 
खाली सूनी गहरी आँखे 
व्यथित अंतर का परिचय दे जाएँगी  
और किसी  मरे सपने की ताज़ी लाश 
अपना अक्स दिखा देगी 
आँखों के नीचे पड़े काले गहरे गड्ढों में 
पर चेहरे पर पड़ी बनावट की परतें
 फिर ढक देंगी टूटन को एक कफन सी 
और बेफिक्री का परदे में 
एक खिलखिलाहट चेहरे तक तो आएगी पर 
झुकी पलकों तक ना पहुँच  पाएगी 
मनीषा 

प्रजातंत्र

भाई भतीजावाद में 
जनता पिस रही है 
बेटे औ' साले की फ़िक्र में 
सत्ता चल रही है 
पूंजीवादी की जमानत 
रातो रात हो रही है 
सत्ता की चालों में 
जनता की मात हो रही है 
सोना हो चुका है स्मगल 
ताज की सोच रहे है
बारी है फिर हिम की
 गंगा में पाप धो रहे हैं 
सर्व उत्थान  के सपने में 
बीबी के अलंकार बन रहे है 
रिश्वत के केस से 
रिश्वत दे कर छूट रहे हैं 
सांसदों में कुर्सी फेंक फेंक 
देश को उठा रहे हैं 
हमारे ये खद्दर धारी 
सिर्फ पूंजी बना रहे हैं 
देश की समस्याएँ 
विदेशों में सुलझा रहे हैं 
कुछ और नही तो 
उत्सव ही मना रहे हैं 
रूपये  की चमक से
शोहरत चमका रहे हैं 
पीढीयों के लिए 
टैक्स दबा रहे हैं 
डाक्टरों का अकाल है शायद 
इसीलिए इलाज 
विदेशों में करा रहे हैं 
इसे वो ज़रूरी 
कांफ्रेंस बता रहे हैं 
हर चैनल पर यह 
अपनी बेवकूफी दिखा रहे है 
और फिर कहते है 
हम देश चला रहे हैं 
कुर्सी के लिए 
ईमान गंवा रहे हैं 
ये लोग इसे 
प्रजातंत्र बता रहे हैं 
मनीषा 

Sunday, January 6, 2013

कुछ पंक्तियाँ


मेरी ऊँचाइयाँ कुछ और बुलंद होती 
गर तेरे लिए  भी मैं काबिल-ए -फख्र होती
जो लिखी थी तेरे लिए
मेरी बस वो ही रचना पढी होती 


जिसे देखने की उम्मीद में हम 
दरगाह तक गए थे 
जब वो ही नहीं आया तो 
खुदा से क्या लेना 

कहाँ तक व्यक्त करूं

कहाँ तक व्यक्त करूं 
मैं यह  आस-निराश 
बस सहेजती ही जाती हूँ 
मैं ,अपनी फैली झोली में 
सारी मौन व्यथाएँ 
तब, दिन -दिन बढे आते हैं 
असंख्य अनगिनित 
हादसों से कपकपाए  लोग 
अपने अनाम चेहरों पर 
दर्द की लकीरें लिए 
कन्धों पर उठाए 
दुखती स्मृतियों का बोझ 
वे चले ही आते हैं 
मेरे साथ बाँटने  
मुझे और स्वयं खुद को 
कब और कितना ही जान पाई हूँ 
इन अनाम निराश व्यक्तियों की 
असीम पीड़ाओ  का माप 
फिर भी सर झुकाए समेटती ही जाती हूँ 
चुनती ही जाती हूँ नज़र चुरा 
उनके अनुभवों का इतिहास 
हर इतिहास , हर कहानी 
अपने रूप, अपनी नक्काशी में 
लिए है अलग-थलग उदास कांति 
फिर भी मानो  सभी एक ही शहर के 
अनाम खंडर से हैं 
मेरी कलम कहाँ व्यक्त कर पाती है 
कहाँ सर्व सत्य  रच पाती है 
कहाँ  लिख पाती है उनकी विह्वहल कराह 
पर फिर भी चले ही आते हैं 
कई अनाम चेहरे 
ओर मेरे मनांचल से हाथ पोंछ 
कुछ देर मेरे मानुष की छाहँ  में सुस्ता 
चल देते हैं दूभर, अनंत सफर की ओर 
जीवन समर में अकेले 
पीड़ाएँ  बटोरते मेरे साथ बाँटते 
अपने अपने संग्राम में व्यस्त 

Saturday, January 5, 2013

आम आदमी

मैं आम आदमी हूँ 
मेरे नाम पर नहीं 
बना कोई मकबरा ,सिनेमा या मज़ार 
कहीं भूकम्प आए या बाढ़ या हो बम से धमाका 
तब अखबार के बिचले पन्नो में 
गणित की संख्या में छप  जाता हूँ 
सुर्खियाँ तो विरासत है खासों की पर, आंकड़ो में आबद्ध 
उन्ही की कुर्सियों के पाए बन कर खड़ा हूँ हर बार वोटों के मौस्सम में 
वे झाँक लेते हैं -पत्रकार, नेता या फिल्मकार 
मेरी और मेरे पाँव के नीचे चिपकी कीचड़ पर भी 
व्यक्त करते हैं भारी भरकम टिप्पणियाँ 
और मौसम की करवट पर चढ़ जाते हैं-रंगीन शीशे उनकी कारों  पर 
और मेरे सिर  पर तपती धूप 
कर देती है उनकी आँखों में एलर्जी 
और मेरे तन की चटखती धूल  से 
पद्द जाते उनके शरीर पर चकत्ते 
और वे अपनी इम्पोर्टेड कारों  में निकल जाते हैं 
फुर्र से 
मैं तो बस एक आम आदमी हूँ 
आम रस्ते सा 
गुज़र जाए जिस पर से हर कोई 
जूते खटखटाते 
मैं तो सिर्फ हिस्सा हूँ सरकार के हर बरस 
उम्दा होते आंकडों  का 
कहते  हैं बजट हो या संसद का तंत्र
 सब मेरी भलाई के लिऎ ही होता है फिर भी 
सड़क पर निरंतर बढ़ती भीड़ का 
मैं केवल एक अनचीन्हा ,धुंधला चेहरा हूँ 
हडतालो और शहर बंदी में टीवी  के आगे 
अखबार लिए ऊंघता -सामान्य सादा आदमी 
भोर  की पहली किरण पर हल-जोतता 
दफ्तरों की ओर  दौड़ता आम आदमी 
बजटों  संसदों  महंगाई की मार झेलता -आम आदमी 
उपले थापता -लकड़ी के चूल्हे पर रोटी सेंकता -आम आदमी 
मंदिरों-गिरजों -मस्जिदों में सजदा करता -आम आदमी 
कानूनों -नियमों  -समाजों  के दर से बंधा -आम आदमी 
अपनी ही दिनचर्या में उलझा 
मशीन सा सत्ता का उलट  फेर देखता 
झूट का सच होता सच का झूट होते देखता
 मात्र  एक आम आदमी हूँ मैं 

मनीषा 

Friday, January 4, 2013

पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !


पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
अवचेतन को चेतन कर दे 
मूक स्वरों को झंकृत कर दे 
जग के प्राणों में विप्लव भर दे 
ऐसा उदगार बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
चट्टानों को पिघला दे 
नभ की छाती चीर दे 
कण कण में क्रंदन भर दे 
ऐसा मूक चीत्कार  बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
गहन निशा में रवि-ज्योति भर दे 
प्रथम सुर से ऋतु  पलट दे 
बुझे दीपों में काँति भर दे 
ऐसा नवीन राग बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
फुट पड़े अंचलो से निर्झर 
गूँज उठे घाटियों में कलरव 
सुमन सुमन मुख खोले 
ऐसा मधुर उच्छ्वास बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
डोल  जाए देवो का आसन 
जाग उठे सोया क्षीर सागर 
आए सृष्टि का उषाकाल 
ऐसा हाहाकार बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
मेरी  सहचरी, नई राह कोई बन सके 
कलंक विश्व का कुछ धुल सके 
बिखरा दे जो चहुँ ओर स्वर्णिम  आलोक 
ऐसा सहज विशवास बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !

यह कविता मैंने 1988 में लिखी थी लेकिन आज भी उतनी ही सार्थक लगती है जितनी पहले। 
मनीषा 

Tuesday, January 1, 2013

नया साल 2013


आँसू भरे नयनों  से  कैसे करूँ नए  साल का स्वागत
क्या संकल्प लूँ  ,कैसे स्वीकार करूँ तुम्हारी  शुभकामनाएँ
गत साल भी तो ये ही किया था
उसकी पीड़ा अब भी तो बाकि है
जो पल खो दिए  उनका अफ़सोस करूँ
या जो अभी मिले ही नही उनकी आशा
इस पीड़ामयी रात में कैसे करूँ नए सवेरे कि  आशा
जिनके हाथो में चिराग हैं वो कहाँ है
जिनके स्वर में निहित आशा और विश्वास हो
वो कंठ कहाँ है
मनमे जो दर्प भर दे ऐसा उज्जवल गान कहाँ है
कानों  में अब नित दिन गूजाँ  करती उस मासूम की चीत्कार है
आँखों के अश्रु में निहित केवल उस माँ की विह्वल पुकार है
कहो कैसे जानू और क्यों कर मानू आया नया साल है
आंसू भरे नयनों  से  कैसे करूँ नए  साल का स्वागत
क्या संकल्प लूँ  ,कैसे स्वीकार करूँ तुम्हारी शुभकामनाएँ
मनीषा