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Sunday, April 24, 2016

मेरी व्यथा को अभी सोने दो

मेरी व्यथा को अभी सोने दो
छाई है अलसाई चाँदनी
मुझे मधु-मस्त रहने दो
जागा है भाव सागर
लहरों को अभी मचलने दो
कब कब आती है पूनो
अमा रही अब तक जीवन पर छाई
निकल आया है ये कैसे
भूले से आज उजास
ज़रा रंगोली सजोने दो
स्थिर जल में कम्पन
ज्वार उठा है तो जल चढ़ने दो
रंग जाए आज धरा
इतना रंग बिखरने दो
बांधो तोरण द्वार
दो ढोलक पर थाप
गा लो मंगल गान
नभ पर मेहंदी रचने दो
मेरी व्यथा को अभी सोने दो
मनीषा

Tuesday, April 12, 2016

एक झूठ

एक झूठ वो सुनता है
एक झूठ मैं कहती हूँ
इस तरह चलती है ज़िंदगी
सच को सुनने और कहने
की ज़रूरत नहीं
सिर्फ समझने की है
सच तो इस कैंची सा है
सब रिश्तों पर
इसलिए मूक रह जाना उचित
और फिर ज़रूरत है
एक झूठ कहने की
और एक झूठ सुनने की
और कुछ इस तरह
गुज़रती  है ज़िंदगी
मनीषा 

उन्हें अब

इतने  सितारे हैं उनके दामन पर
उन्हें हमारे पांव के छाले नहीं दिखते
इतने उजाले  हैं उनके ठौर
उन्हें अब हमारे अँधेरे नहीं दिखते

इतने फ़िदा  हैं वो हमारी मुस्कानों पर
उन्हें हमारी पलको के आंसू नहीं दिखते
इतने गुमराह हैं वो हमारी झूठी तसल्लियों पर
उनको अब हमारे सच नहीं दिखते
मनीषा