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Sunday, December 22, 2013

यदि हम संग रोते संग ही हँसते

कितना अच्छा  होता 
यदि हम संग रोते संग  ही हँसते 
संग ही भीगते बारिश  की बूंदों में 
और नहा जाते सर्दी की धूपों में 
कभी बच्चे बन जाते तो कभी 
रूठते तुम तो मनाती मैं 
और मेरे रूठने पर तुम रिझाते 
मन की उच्छ्रंखलता रहती चंचलता नैनो में 
कभी रजाई के भीतर बैठे दोनों देखा करते फिल्मे 
मैं डरती तो दुबका लेते तुम 
मेरी उलझनों को पल मे सुलझा देते तुम 
तुम्हारे मेरे दुःख साझे होते 
एक दुसरे  के बिन  बोल हमारे अधूरे होते 
जो तुम न कहते वो भाँप  लेती मैं 
मेरा अनकहा जान  लेते तुम 
कितना अच्छा  होता
यदि हम संग रोते संग  ही हँसते 

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