Pages

Sunday, January 24, 2016

काँच

उसने उठाए थे जब टुकड़े मेरे 
सिमट आई थी मैं 
इस बात से अनजान 
की काँच को फेंकने से पहले 
समेटना पड़ता है 
मनीषा

सच कहाँ मिलता है

सच और पूरा सच कहाँ मिलता है 
सिर्फ कफन ओढ़ने से कब खुदा मिलता है 
खुद से कुछ इस तरह बिछड़ चुके हैं कि 
अपने चेहरे पर भी अब नकाब ही मिलता है 
झूठ की आदत हो चली है कुछ इस तरह 
अब मिलता है सच भी तो बनावट सा लगता है
घर के चूल्हे ने बुझा दी है दिलों से सुलगती आंच
पराई आग मे हर शख्स अपनी ही रोटियाँ सेंकता दिखता है
मनीषा

Thursday, January 7, 2016

कांटों में खिलना सीख लिया

कांटों में खिलना सीख लिया
अब तेरे बिन भी जीना सीख लिया
दो कमरों में है दूरी ही कितनी
खुद को बहलाना सीख लिया 
बहुत रोए तेरी खातिर कभी
अब
हमने भी मुस्काना सीख लिया
खो जाते हैं साये भी अंधेरों में
मन को समझाना सीख लिया
खो कर तुझे इन बंजर राहों में
अब
हमने खुद को पाना सीख लिया
मनीषा

Wednesday, January 6, 2016

इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ

क्या ये इतना मुश्किल है ... ?

कभी तो हिन्दू मुसलमां  से  परे इन्सां  बन जाएं
मैं तुम्हारी आयतें पढ़ूँ  तुम मेरी गीता  कंठस्थ कर लो
जिस भूमि पर गिरा लहू कुछ मेरा कुछ तुम्हारा
चलो उस भूमि पर कुछ धान लगाएं
संगीने छोड़ आज एक बार हल उठाएं
ये जो जलाती  है हर बस्ती हर घर को निसदिन
उस लगी आग को मिल बुझाएं
जो बीत चुकी सदियों पहले वो बीती बिसरायें
आज इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ
मनीषा 

Sunday, January 3, 2016

बदलेगा सैयाद इंतजार में परिन्दे बैठे हैं

हम भी बेज़ार बैठे हैं 
उनके झूठ पर हैरान बैठे हैं 
मुल्क में हैं मुफलिसी बहुत 
फिर भी नौजवान बेकार बैठे हैं
माना खूबसूरत है ख्याल आपका 
पर किस गफलत में आप बैठे हैं
दे कर कातिल के हाथ में खंज़र
गरदन झुकाये मज़लूम बैठे हैं
ले कर गुहार न्याय की हाकिमों से
लोग फिर धरने पर बैठे हैं
लुट गया इस बहार में चमन
बदलेगा सय्याद
 इंतजार में परिन्दे बैठे हैं
मनीषा