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Friday, December 27, 2013

व्यक्त

कहाँ  व्यक्त कर पाती हूँ
बस भरती  ही जाती हूँ
अपने मन की फैली झोली में
सहेजती जाती हूँ
सारी मौन व्यथाएँ
और दिन दिन बढ़ते आते हैं
असंख्य अनगिनत
हादसों से कँपाए  लोग
अपने अनाम चेहरों पर
दर्द की लकीरें लिए
कांधो पर दुःखती  स्मृतियों का
बोझ लिए
छलके ही आते हैं
मेरे साथ बाँटने स्वयं  को और मुझे
कब जान पाई हूँ मैं
इन निराश व्यक्तित्वों की पीड़ाओं का माप
फिर भी सर झुकाए
बांटे ही चली जाती हूँ
दिए ही जाती हूँ अपना एक हिस्सा
इन इतिहास और अनुभव की हर कहानी पर
जो समोए है एक जिंदगी अपने ही भीतर
हर इतिहास हर किस्सा जीवित है
अपनी ही नक्काशी लिए
फिर भी मानों  सब है अलग
जैसे किसी शहर में बसे पुराने खंडहर हों
और मेरी लेखनी से उतरते शब्द भी
इस अथाह संसार में
डूबती उतरती बूंदे हैं
जो बहती हैं किसी मोती  कि तलाश में
और हर सागरिक
अपनी ही तृषा बुझा इनसे चल देता है
हाथ पोंछ अपने ही किनारे की खोज में

by me मनीषा

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