Pages

Wednesday, February 27, 2013

याद है मुझे आज भी

याद है मुझे आज भी 
रात  में तुम्हे जान तकिये से यूं लिपटना मेरा 
वह  किसी और शख्स में तुम्हे देख ठिठकना मेरा 
कभी तुम्हारे ख्यालो में भटक मुस्कुराना मेरा 
और तुम्हारे खत को किताबो के बीच रख  पढना मेरा 

अक्सर तुम्हे याद कर और तन्हा हो जाना मेरा 
फिर दिल को बहला फुसला महफ़िल में खिलखिलाना मेरा 
हर सुबह डाकिए की राह  निहारना मेरा 
और हर शाम के साथ मायूस हो जाना मेरा 

तेरी जुदाई को इम्तिहान समझ सहना  मेरा 
उस  दर्द में भी वो सहेलियों संग मुस्काना मेरा 
कभी तनहा तनहा आँसू  बहाना मेरा 
कभी हर आहट  पर वो आँखों के अश्क छुपाना मेरा 

तेरे आने की खबर पर वो इतराना मेरा 
इन कदमो का थिरकना  वो हाथों का कांप  जाना मेरा 
तुमसे मिलने के लिए वो बहाने से घर से निकलना मेरा  
और तुम्हे सामने पा  वो रो पड़ना मेरा

मनीषा 

तुमने अंकित कर दिए शब्द

कितनी सरलता से तुमने 
अंकित कर दिए  शब्द 
और घुमड़ते भावों को दे दिया 
एक निश्चित आयाम 
एक कोरे कागज़ पर लिख दिया
 इस रिश्ते का नाम और अंजाम 
पर क्या यह  काफी है 
उन सभी मूक अभिव्यक्तियों 
को व्यक्त करने के लिए 
क्या मन के भाव बंधन में बंधे रह जाएँगे 
या व्यक्त हो उन्मुक्त हो जाएँगे 
शब्दमय अभिव्यक्ति केवल क्षणिक सुख देती  है 
अनकहे विचार मन में ज्वर भाटे से मचलते हैं 
मन के साहिल को कचोटते काटते 

क्या मैं इन शब्द सेतू के पार 
जान पाऊंगी  तुम्हे 
या तुम इन शब्दों की परम्परा से मुक्त हो 
पारदर्शी हो पाओगे
 शब्द सतही हैं 
कोरे अक्षर पंगु से सिर्फ 
रिश्तो के दायरे मापते हुए 

तुम और मैं 
इन  पूर्व निर्मित वाक्यों में उलझे 
मिल नहीं पाते , कहीं  गुम हो जाते है अर्थों  की सूची में 
फिर  सप्तपदी के इन वचनों को 
मैं क्यों यूं ही  मान लूं 
मैं क्यों और कैसे विश्वास  करूं 
और तुम भी क्यों स्वीकार करो 
इन भाव विहीन शब्दों में स्पष्ट होते अर्थ 

क्यों न तुम और मैं 
सिर्फ मूक भावों का ही सम्प्रेषण करें 
और मान ले शब्दोंकी असक्षमता को 
जो आज इस क्षण से पूर्व 
और इस क्षण के बाद 
या इस क्षण में भी 
हमारे बंधन को समेट  नहीं पाएंगे 
अपनी सीमित सार्थकता में 

एक बार फिर से पहचान करें 
मन से मन की बात करे 
कुछ तुम मेरी अनकही सुनो 
कुछ मैं तुम्हारी आप बीती सुनूँ 
फिर से वो पहली मुलाकात करें 
चलो शब्दों वाक्यों विधानों से परे 
आँखों की आँखों से  बात करें 

मनीषा 


Monday, February 25, 2013

मेरे गीत भी मुस्कुराते हैं

ज़िन्दगी की संकरी गलियों में 
कुछ रिश्ते अनायास ही आँचल से लिपट जाते हैं 
और मेरी तन्हाई कुछ अकेली हो जाती है 
मन को छूते हैं कुछ पल  हौले हौले से 
और एक  सुबह निखरी निखरी धूप  
मेरे कंधो पर रख देती है हाथ 
कितना सुखद होता है 
कभी अपने ही अतीत से मिलना 
अपने बचपन में लौटना 
जब मिलते हैं मीत पुराने 
मुझे मेरी याद दिलाते हैं 
और मेरे गीत  भी मुस्कुराते हैं 

Tuesday, February 19, 2013

रस्ते पर चलती लोगों की भीड़


रस्ते  पर चलती लोगों की भीड़ 
और भीड़ के बीच पसरे दो हाथ नन्हे काले भद्दे हाथ 
हाथों पर  नाखून चटक कर काले पड़  चुके हैं 
और हथेलियों पर बिखरी पड़ी है 
परत दर परत गर्द 
हाथ पसरते ही रहते हैं  
हर तेज़ कदम की धमक के आगे 
उन हाथों पर रखी  है 
एक बेचारी सी खामोश आवाज़
 जिसकी उम्मीदगी में  झलकती है 
एक अठन्नी की खनक 
भीड़ के आगे फैले हाथ फैलते ही चले जाते हैं 
लाचारी भरी मासूम आंखे देखती रहती हैं 
और भीड़ गुम  होती जाती है 
न जाने कहाँ से कहाँ तक आती है जाती है हर रोज़ 
अब भीड़ में चेहरे नज़र नहीं  आते 
बस आता है नज़र तो बस उस भीड़ के हिस्से बने लोग 
और उनके आगे दया याचना करते  
दो जोड़ पसरे हाथ 
हर तरफ बस सिक्कों की खनक ढूंढते 
हाथ ही हाथ 
भीड़ सिक्के खनकाती कहीं गुम  हो जाती है 
उसे रुकना ठिठकना मंज़ूर न हो जैसे 
रह जाती है तो मन मसोसे 
कूड़े के ढेर में पत्तलें ढूंढते दो  हाथ 
और गर्द फांकती  प्रश्नभरी दो आँखे 
मनीषा 



जब जब उतरती है

जब जब उतरती है 
       वसुधा  के अंचल पर रात नई 
मन को आलोड़ित  करती है 
       फिर फिर बात वही 
यूँ तो समय ने कितनी देखी  होगी 
        रातें नई  नवेली 
पर रुक था क्षण भर काल भी 
        देख वो छवि सलोनी 
मिलन था वो पल या बिछोह की थी राह बनी 
        जब नैनो की नैनो से थी तकरार हुई 
मन आज भी उसांस  भर रह जाता है 
        सोचता है बावरा 
 उन नैनो में थी भी या नहीं बात कोई 
मनीषा 

Sunday, February 17, 2013

वक्त की कलम से

वक्त की कलम 
से ज़िन्दगी के पन्नों पर 
अक्षर अक्षर बिखरती रही मैं 
कभी जीती कभी थोड़ा मरती रही मैं 
बहुत सोचा सब पा लेना मेरे बस में है 
नियति से भिड़ती लडती रही मैं 
तुझे जीतने को 
हर कदम पर खुद को हारती रही मैं 
कभी चुप रही 
कभी बोली भी , तुझसे मन का भेद छुपाती रही मैं 
बहुत टूटी बहुत  बिखरी 
फिर भी तेरे लिए हँसती  मुस्कुराती रही मैं 
मुझे ढूंढना मेरे गीतों में 
तेरे लिए जिंदगी भर गाती रही मैं 
मनीषा 

Wednesday, February 6, 2013

शब्दों का नाता तो रहने दो

शब्दों का नाता तो रहने दो, एक छलावा तो रहने दो 
वेदना से मेरी, भीगी होंगी तुम्हारी भी आँखे 
आछन्न मन से फूटी होंगी बोझल आहें 
मौन एक दिलासा तो रहने दो 

जब भी अश्रु छलकाने को कान्धा  तलाशेंगी मेरी आँखे 
जीवन के समर में  खंड खंड हो जाएँगी  मेरी पाँखे  
बनकर आधार थाम लोगे मुझे तुम 
एक नन्ही सी आशा तो रहने दो 
शब्दों का नाता तो रहने दो, एक छलावा तो रहने दो 

फिर इसी मोड़ पर प्रतीक्षारत तुम्हे पाऊँगी  मैं 
दूर हो कर भी तुमसे तुम तक फिर लौट पाऊंगी मैं 
हर राह पर मेरी मंजिल से होगे तुम 
एक चुप सा विश्वास  तो रहने दो 
शब्दों का नाता तो रहने दो, एक छलावा तो रहने दो 

जिनके अपने हैं जग में उन्हें कटु सत्यों से भय कब लगा 
मेरे लिए तो बस यह भुलावा ही जीने का बहाना हुआ 
सांसों का तारतम्य तो रहने दो 
बोल चालों  में अपनत्व की परिभाषा तो रहने दो 
शब्दों का नाता तो रहने दो, एक छलावा तो रहने दो 
मनीषा