गुज़र जाते हैं हमारे बीच कितने
अनकहे दिन ,अनकही रातें
कहो, कब तक करनी होंगी दीवारों से बातें?
नयन जब भी पा जाते कुछ ऐसा
जो हर्षित तुमको भी किया करता
मन मचल जाता वहीँ कहीं
तुमको पास बुलाने को
कितनी संचित स्मृतियाँ अतीत के
पुलिंदो में दफ़न हुईं
कितनी सूनी रातें सपनीली बातें सिर्फ
करवटों में गुज़र गईं
अब एक लम्बी सुनहली धूप
चुराने का मन करता है
चुटकी भर चांदनी बिखराने का
मन करता है
शाम की इन उदास क्यारियों में
एक नन्हा सा सुख उगाने को मन करता है
आज संग तुम्हारा पाने का
मन करता है
मनीषा
मनीषा
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