कहाँ तक व्यक्त करूं
मैं यह आस-निराश
बस सहेजती ही जाती हूँ
मैं ,अपनी फैली झोली में
सारी मौन व्यथाएँ
तब, दिन -दिन बढे आते हैं
असंख्य अनगिनित
हादसों से कपकपाए लोग
अपने अनाम चेहरों पर
दर्द की लकीरें लिए
कन्धों पर उठाए
दुखती स्मृतियों का बोझ
वे चले ही आते हैं
मेरे साथ बाँटने
मुझे और स्वयं खुद को
कब और कितना ही जान पाई हूँ
इन अनाम निराश व्यक्तियों की
असीम पीड़ाओ का माप
फिर भी सर झुकाए समेटती ही जाती हूँ
चुनती ही जाती हूँ नज़र चुरा
उनके अनुभवों का इतिहास
हर इतिहास , हर कहानी
अपने रूप, अपनी नक्काशी में
लिए है अलग-थलग उदास कांति
फिर भी मानो सभी एक ही शहर के
अनाम खंडर से हैं
मेरी कलम कहाँ व्यक्त कर पाती है
कहाँ सर्व सत्य रच पाती है
कहाँ लिख पाती है उनकी विह्वहल कराह
पर फिर भी चले ही आते हैं
कई अनाम चेहरे
ओर मेरे मनांचल से हाथ पोंछ
कुछ देर मेरे मानुष की छाहँ में सुस्ता
चल देते हैं दूभर, अनंत सफर की ओर
जीवन समर में अकेले
पीड़ाएँ बटोरते मेरे साथ बाँटते
अपने अपने संग्राम में व्यस्त
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