मेरी ऊँचाइयाँ कुछ और बुलंद होती
गर तेरे लिए भी मैं काबिल-ए -फख्र होती
जो लिखी थी तेरे लिए
जो लिखी थी तेरे लिए
मेरी बस वो ही रचना पढी होती
जिसे देखने की उम्मीद में हम
दरगाह तक गए थे
जब वो ही नहीं आया तो
खुदा से क्या लेना
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