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Friday, January 4, 2013

पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !


पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
अवचेतन को चेतन कर दे 
मूक स्वरों को झंकृत कर दे 
जग के प्राणों में विप्लव भर दे 
ऐसा उदगार बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
चट्टानों को पिघला दे 
नभ की छाती चीर दे 
कण कण में क्रंदन भर दे 
ऐसा मूक चीत्कार  बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
गहन निशा में रवि-ज्योति भर दे 
प्रथम सुर से ऋतु  पलट दे 
बुझे दीपों में काँति भर दे 
ऐसा नवीन राग बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
फुट पड़े अंचलो से निर्झर 
गूँज उठे घाटियों में कलरव 
सुमन सुमन मुख खोले 
ऐसा मधुर उच्छ्वास बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
डोल  जाए देवो का आसन 
जाग उठे सोया क्षीर सागर 
आए सृष्टि का उषाकाल 
ऐसा हाहाकार बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !
मेरी  सहचरी, नई राह कोई बन सके 
कलंक विश्व का कुछ धुल सके 
बिखरा दे जो चहुँ ओर स्वर्णिम  आलोक 
ऐसा सहज विशवास बनो 
पीड़ा तुम गान बनो, मेरे मन का अंगार बनो !

यह कविता मैंने 1988 में लिखी थी लेकिन आज भी उतनी ही सार्थक लगती है जितनी पहले। 
मनीषा 

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