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Wednesday, January 23, 2013

रोज़ आती है एक रात मेरे मन में

रोज़ आती है एक रात मेरे मन में 
रोज़ उसे सूरज से तेरे भगाती हूँ 
रोज़ मन करता है मर जाने का 
रोज़ तेरे नाम पर जी जाती हूँ 

बहुत अँधेरा है यहाँ 
रौशनी तक कहीं  नज़र नही आती 
इतनी दूरियाँ  हैं 
सालों  की मजबूरियाँ हैं
 बीच में तेरे मेरे 
वक्त का एक दरिया है 
आँख मूँद भी लूँ  मैं तो भी 
मन के भीतर 
अब तेरी सूरत तक नज़र नही आती 

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