रोज़ आती है एक रात मेरे मन में
रोज़ उसे सूरज से तेरे भगाती हूँ
रोज़ मन करता है मर जाने का
रोज़ तेरे नाम पर जी जाती हूँ
बहुत अँधेरा है यहाँ
रौशनी तक कहीं नज़र नही आती
इतनी दूरियाँ हैं
सालों की मजबूरियाँ हैं
बीच में तेरे मेरे
वक्त का एक दरिया है
आँख मूँद भी लूँ मैं तो भी
मन के भीतर
अब तेरी सूरत तक नज़र नही आती
No comments:
Post a Comment