व्यंग रचूँ या हास्य
क्या बदल जाएगा कुछ
तुम मुझे स्वयं को रचने दो
कभी अपनी पीड़ा भी तो कहने दो
मैं क्यों तुम्हारे लिए लिखूँ
निबोरियों पर क्यों चाशनी लपेट रखूँ
प्रस्फुटित होने दो काँटे मेरे बदन से
मैं तुम्हे चुभना चाहती हूँ
तुम्हारी आँखों में खटकना चाहती हूँ
और सुनो तो कहूँ
मैं कोरा सच लिखना चाहती हूँ
No comments:
Post a Comment