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Wednesday, January 15, 2025

अंतिम विदाई अंतिम प्रणाम

 अंतिम विदाई अंतिम प्रणाम

आज फिर मैं जो सफर पर चला
किसी ने लौट कर आने को ना कहा
ना माथा चूमा ना दोनो हाथ उठा आशीष भरा
किसी ने आंचल से नाम आंखे पोछते विदा ना किया
आज फिर जो मैं सफर पर चला।।
ना हाथ में डब्बा था नमकीन भरा
ना घी चुपड़ी रोटी और आचार
ना थी घर की वो पुरानी नेमते
थोड़ी सी रोली चावल की गोदी
और झूठमूठ के वादे और
वो सच्ची कसमें और सख़्त हिदायते
आज जो फिर मैं सफर पर चला।।
ना लौट कर आने को कहने वाले पिता थे
ना ठीक से रहना कहती अम्मा
ना फिर आने को कहती भाभी
ना पीठ थपथपाते भईया
था बस एक सूना द्वार
जर्जर होती जा रही दीवार से झड़ता पलास्तर
और जंग खाता चुप सा जंगला
आज जो फिर मैं सफर पर चला।।
मनीषा वर्मा

अपने अपने द्वीप पर

 मैं एक द्वीप पर हूं

एक दायरे के भीतर
सुरक्षित
महफूज़
मुझ तक नहीं आतीं
कोई चीख पुकार।।
आस पास बहुत धुंध है
व्यवहार की परंपरा की
इसलिए मुझ तक नहीं
आते लहूलुहान बच्चों की
अर्धनग्न औरतों चेहरे ।।
मेरे आस पास शोर बहुत है
आरतियां हैं गुनगुनाते नग्मे हैं
इसलिए मुझ तक नहीं आता
रूदन और गिड़गिड़ाना
आरतों और बच्चों का ।।
मेरे आस पास है
रसोई की गंध है पकवानों की खुशबू
इसलिए मुझ तक नहीं आती
जलते अंगो और सड़ती लाशों
की दुर्गंध।।
मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं
महफूज हूं।।
मेरे पास बहुत कुछ नहीं हैं
जो मुझे विचलित करता है।।
और मैं आवाज़ भी उठाती हूं
अपने लिए मांगती हूं
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
आस पास घूमने की आजादी
लेकिन मेरी इस चुप ने
मुझे दिया भी बहुत
एक छत, एक घर
वक्त पर खाना पूरा परिवार
थोड़ा सुख थोड़ा प्यार।।
और मुझे मिला है
घर संसार
एक अदद बहुत बड़ा सा कलर टीवी है
जिस पर आती हैं खबरें
युद्ध की दंगाइयों की
और
मुझे स्वतंत्रता है
कि डर से उसे बंद कर दूं।
कस के आंखे भींच लूं
मुंह में कपड़ा ठूंस लूं
और कानों में रूई भर लूं
क्योंकि मैं जानती हूं
मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं
महफूज़ हूं।।
शायद यही होता है
सब अपने अपने द्वीप पर
बैठें हैं
सुरक्षित महफूज़।।
थोड़े थोड़े गुलाम लेकिन
महफूज़
अपने अपने द्वीप पर।।
मनीषा वर्मा

ये उठता धुंआ ये सुलगती लाशें

 ये उठता धुंआ ये सुलगती लाशें

ये बच्चों की चीखें
ये स्त्रियों का रूदन
ये खंडहर शहरों के
ये मलबों में दबे मासूम हाथ
ये अध कटे बदन
ये सड़कों पर चीथड़े मांस के
ये किस ने बारूद से उड़ा दी हैं
मानवता की धज्जियां?
मनीषा वर्मा

कुछ दिन

 कुछ दिन बहुत मुश्किल होते हैं

बरसों तक जैसे क्षण वहीं थमे हों।।
एक काली सी अंधेरी रात
बरसों बरस जैसे उसी आसमां
पर ठहरी रहती है।
सूरज उगता है मद्धम सा
दिन गुजरता नहीं रात गुजरती नहीं।।
एक यंत्र सा जीवन पूरे साल जो चलता रहा
बस उस एक दिन उस एक पल
बस वहीं ठहर जाता है
जैसे ये बीस पच्चीस साल के दिन और रात
आए ही नहीं जिए ही नहीं
इनमें आए सुख और दुख के पल
किसी और ने जिए हमारे लिए
हम तो वहीं हैं उसी पल में रुके हुए से
वहीं पुकारते तुम्हे आंखे खोलने की
कुछ फिर से बोलने की याचना करते हुए
तुम्हारे खोए हुए बच्चे
इस दुनिया की भीड़ में तुम्हें खोजते ढूंढते
बस वहीं तुम्हारे सिरहाने आवाक बैठे हुए।।
मनीषा वर्मा

थोड़ा सा पागल हो जाना स्वीकार मुझे

 थोड़ा सा पागल हो जाना

स्वीकार मुझे
तुम बिन जीना कितना दुश्वार मुझे।।
बिना पैर के चलती हूं
बिना हंसी के हंसती हूं
तुम बिन कहां कोई व्यवहार मुझे ।।
ना आसमां कोई सिर पर मेरे
ना पैरों तले ज़मीन मिले
तुम बिन त्रिशंकु सी हर ठौर मुझे ।।
मनीषा वर्मा
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कभी अकेले बैठो तो

 कभी अकेले बैठो तो

ध्यान से देखना आस पास
ये सुकून ये शांति बस
तभी तलक है जब तक
किसी के भीतर की नफरत
उबल कर सड़कों और चौराहों
पर फैल नहीं जाती।
तुम हो तो मालिक सारे जहान के
पर मोहताज तो हो
हुकूमतों की साजिशों
और सदियों की राजनीति के
तुम्हारे कांधे पर चढ़ कर
नफरत का पिचाश
कहानी कह रहा है
और तुम चुप हो सुनते हुए
सच और झूठ सब
तुम्हारे बोलने पर ही तो ये
जहां से आया है वहीं जाएगा
वरना सिर चढ़ कर कानों में
केवल जहर ही उगलेगा
और स्वाह कर देगा
तुम्हारा शहर तुम्हारा मकान
तुम्हारा वंश
और तुम गिरी मीनारों के मलबों में
अपनों की कब्र
बनाते रह जाओगे।
मनीषा वर्मा

सिर्फ इतना चाहिए था

 सिर्फ इतना चाहिए था

बस तुमसे सिर्फ इतना चाहिए था
आसमां नहीं एक छत
धरती नही नर्म घास
एक घरोंदा आंचल सा
थोड़ी धूप थोड़ी छाया
पल भर थकन मिटाने का विश्राम
थोड़ा रो लेने को एक कांधा
थोड़ा मुस्कुराने का सामान
सुख दुःख बटते थोड़े
वादे इरादे होते थोड़े पूरे
कहाँ माँगा था तुमसे पूरा आसमान
बस तुमसे सिर्फ इतना चाहिए था
मनीषा वर्मा

जो तुम आओ

 कितने रत्न पहनूं

कितने चिन्ह सजाऊं
चौखट पर
जो तुम आओ ।।
कहो तो, मंत्र जपूं और
तीर्थ कर आऊं नंगे पांव
जो तुम आओ।।
क्या वास्तु दोष है
या जाऊं किसी बामन से
पत्री बचवाऊं
जो तुम आओ ।।
नसीब का है
क्या ये खेला ?
क्या ये कोई साजिश है
दुनिया की?
करूं क्या उपाय
कि मेरी तकदीर में
जो तुम आओ।
मनीषा वर्मा

इक तेरी खामोशी है एक मेरा इंतज़ार

 इक तेरी खामोशी है एक मेरा इंतज़ार।

ना वो टूटती है, ना ये ख़त्म होता है।।
मिलते हैं लोग क्यों बिछड़ने को सदा।
ना मालूम इश्क में ये कायदा क्यों होता है।।
तेरी रूखस्त तक रुकी थी मैं वहीं तुझे देखते।
ना जाने तुझ से अब मिलना कब होता है।।
लिखती हूं मिटाती हूं रोज वही एक पैगाम।
ना जाने तुझ से कहने का हौसला कब होता है।।
मनीषा वर्मा