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Thursday, February 6, 2025

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे

 तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


ये ज़ुल्फ लहराई भी थी गश खाई भी थी

शोखियां नज़रों की ना कभी समझे तुम ना हम कभी कह सके।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


मजबूरियां थीं जमाने की परेशानियां भी थीं

जो चुप तुम लगा गए और हम भी वहीं मुरझा गए।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


आंखो का समंदर उमड़ा भी था इन पलकों पर आ कर ठहरा भी था 

हाथ मेंहदी में तुम्हारा नाम हम लिखा ना सके 

जो दिल में था तुम्हे ही बता ना सके ।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


महफिलों में गाते फिरते हैं तुम्हारे ही किस्से 

फिर ना कहना हमने बताया ही ना था 

प्यार था कितना ये जताया ही ना था ।।


तुम खुद को संभालो हम तो संभल ही जाएंगे।

ज़ख्म जितने भी हों गहरे वक्त के साथ भर ही जाएंगे।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

4 comments:

  1. वक़्त का ही दिया हर ग़म है्
    वक्त ही हर दर्द का मरहम है।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. ज़ख़्म भर भी जाए तो क्या .. ज़ख़्म के दाग़ रह ही जायेंगे .. शायद ...

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  3. बहुत सुंदर रचना।

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