तुम्हे क्या समझूँ ?
और कैसे ?
अपने से हो
पर पराए लगते हो।
कभी रख देते हो,
मेरी आँखों में आकाश।
कभी कदमों तले बिछी
धरती भी छीन लेते हो।
तुम्हें ओढ़ लेती हूँ
हर रात ख़्वाब बुनने से पहले,
तुम हो कि मेरी नींद भी छीन लेते हो।
रोज़ दिलासों से सी लेती
हूँ अपना उधड़ा हुआ रिश्ता,
तुम हो कि फिर
नए सिरे से चीर देते हो।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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