मेरी डायरी के कुछ पन्ने
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुँधे मोए इक दिन ऐसा आयेगा मैं रुँधूगी तोए
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Sunday, January 24, 2016
काँच
उसने उठाए थे जब टुकड़े मेरे
सिमट आई थी मैं
इस बात से अनजान
की काँच को फेंकने से पहले
समेटना पड़ता है
मनीषा
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