मेरी डायरी के कुछ पन्ने
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुँधे मोए इक दिन ऐसा आयेगा मैं रुँधूगी तोए
Pages
(Move to ...)
Home
▼
Sunday, January 24, 2016
काँच
उसने उठाए थे जब टुकड़े मेरे
सिमट आई थी मैं
इस बात से अनजान
की काँच को फेंकने से पहले
समेटना पड़ता है
मनीषा
No comments:
Post a Comment
‹
›
Home
View web version
No comments:
Post a Comment