झुकी आँखों में स्वप्न संजोए
लाज भरे कदमों से आई थी
तुम्हारा प्रांगण संजोने
हर कटाक्ष से
थोडा भीतर से मरती रही
बिछौने से तुम्हारा यूँ उठ कर चले
जाना
मेरी आँखों के कोरों से पानी सा बहता रहा
फिर भी अश्रु छिपाती रही
कभी पसंद ना आईं मेरी रोटियाँ
कभी पसंद ना आया श्रृंगार
और मैं खुद को बदलती रही
तुम्हारी नज़रों के लिए ढलती रही
रोज मिटती रही
मिट्टी सी रुंधती रही
मन की चोट के निशां नही होते
इसलिए हँसती रही
तुम्हारा आंगन संजोती रही
भीचें होंठ तनी भुकुटि
वो आँखों में अनुमोदन
वो डायरी में पांच रूपये का भी हिसाब
वो हल्के से इज़ाज़त दे देना
वो बच्चों के शोर पर तुम्हारा
नाराज़ हो जाना
मेरा पाँव छू माफ़ी माँगना
और फिर हमबिस्तर हो जाना
मैं रोज़ थाली सी परसती रही
करवा चौथ रखती रही
जीवन की गठरी में गांठे कसती रही
रोज मिटती रही
मिट्टी सी रुंधती रही
मन की चोट के निशां नही होते
इसलिए हँसती रही
तुम्हारा आंगन संजोती रही
manisha
लाज भरे कदमों से आई थी
तुम्हारा प्रांगण संजोने
हर कटाक्ष से
थोडा भीतर से मरती रही
बिछौने से तुम्हारा यूँ उठ कर चले
जाना
मेरी आँखों के कोरों से पानी सा बहता रहा
फिर भी अश्रु छिपाती रही
कभी पसंद ना आईं मेरी रोटियाँ
कभी पसंद ना आया श्रृंगार
और मैं खुद को बदलती रही
तुम्हारी नज़रों के लिए ढलती रही
रोज मिटती रही
मिट्टी सी रुंधती रही
मन की चोट के निशां नही होते
इसलिए हँसती रही
तुम्हारा आंगन संजोती रही
भीचें होंठ तनी भुकुटि
वो आँखों में अनुमोदन
वो डायरी में पांच रूपये का भी हिसाब
वो हल्के से इज़ाज़त दे देना
वो बच्चों के शोर पर तुम्हारा
नाराज़ हो जाना
मेरा पाँव छू माफ़ी माँगना
और फिर हमबिस्तर हो जाना
मैं रोज़ थाली सी परसती रही
करवा चौथ रखती रही
जीवन की गठरी में गांठे कसती रही
रोज मिटती रही
मिट्टी सी रुंधती रही
मन की चोट के निशां नही होते
इसलिए हँसती रही
तुम्हारा आंगन संजोती रही
manisha
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