मन में
दर्द की गठरी लिए
जाने कब तक जीना
इस जीवन का बोझ
न जाने कब तक है ढोना
नित उठ कर बस
उसांस भर
कर्म के क्रम में न जाने
कब तक है जुटना
न जाने कब तक है जीना
इस पार तो दायित्व है
कर्म का पुलिंदा हैउस पार न जानेकितना है कॊई अकेलाहम तो रो लेते हैंचुपचाप चुपचापकह सुन लेते हैंइक दूजे से भी मन की बातउस काल परदे के पीछे सेक्या जाने वो भी देते हों हमें आवाज़बिन मीतन जाने कब तक और है जीनाइस जीवन की गठरी कोकब तक है ढोनामनीषा
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