वक्त की कलम
से ज़िन्दगी के पन्नों पर
अक्षर अक्षर बिखरती रही मैं
कभी जीती कभी थोड़ा मरती रही मैं
बहुत सोचा सब पा लेना मेरे बस में है
नियति से भिड़ती लडती रही मैं
तुझे जीतने को
हर कदम पर खुद को हारती रही मैं
कभी चुप रही
कभी बोली भी , तुझसे मन का भेद छुपाती रही मैं
बहुत टूटी बहुत बिखरी
फिर भी तेरे लिए हँसती मुस्कुराती रही मैं
मुझे ढूंढना मेरे गीतों में
तेरे लिए जिंदगी भर गाती रही मैं
मनीषा
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