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Tuesday, November 21, 2023

तुम बिन

 थोड़ा सा पागल हो जाना 

स्वीकार मुझे 

तुम बिन जीना कितना दुश्वार मुझे।।

 

बिना पैर के चलती हूं

बिना हंसी के हंसती हूं

तुम बिन कहां कोई व्यवहार मुझे ।।


ना आसमां कोई सिर पर मेरे 

ना पैरों तले ज़मीन मिले 

तुम बिन त्रिशंकु सी हर ठौर मुझे ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

उठो ना मां

 अजीब ही है

जैसे गले में एक शब्द घुट कर रह गया 

उस दिन...

मां

आज भी उतनी ही वेदना से 

भीतर घुड़मता है वही बार बार ।।

यहीं आ कर चेतना शून्य हो जाती है

मन तर्क कुतर्क से परे 

बस चीखना चाहता है... मां उठो।।


मन है कि बस 

देखना चाहता है वही  स्नेहिल मुस्कान 

महसूस करना चाहता है वही स्पर्श

जो पूरी प्रकृति में कहीं नहीं है

और अतीत की कोई स्मृति 

जैसे ही मन गुदगुदाती है

नजर घूमती है बगल में कि अरे मां को बताएं

लेकिन वो जगह तो खाली है

वहां कोई नहीं है सुनने को

और फिर मन चीख उठता है

मां... उठो।।


छुट्टियां आती हैं त्योहार आते हैं 

जिनके पास मां हैं वो लौटते हैं 

उनके पास घर हैं लौटने को 

हमारे पास भी है एक मकान 

एक घर हमारी संतानों के लिए 

पर हमारा घर ?

दिए की लड़ियां लगाते हुए 

मां की सब सावधानियां याद आती हैं

दूर से जगमग देख कर मन सोचता है

पूंछू ठीक लग रही है ना

लेकिन किससे

और फिर मन चीख उठता है 

मां ....सुनो ना

कहां गईं?

मां...उठो 

तुम्हारी संतानें अभी है 

तुम कैसे जा सकती हो?

किसने तुम्हें छूट दे दी कि

चल दो इस अंतिम सफर पर

ना नहीं

मां....उठो, 

उठो ना मां ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ्तगू




Saturday, November 18, 2023

सुलगते शहर

 ये उठता धुंआ ये सुलगती लाशें

ये बच्चों की चीखें 

ये स्त्रियों का रूदन

ये खंडहर शहरों के 

ये मलबों में दबे मासूम हाथ

ये अध कटे बदन

ये सड़कों पर चीथड़े मांस के 

ये किस ने बारूद से उड़ा दी हैं

मानवता की धज्जियां?


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Tuesday, November 7, 2023

अपने अपने द्वीप

 मैं एक द्वीप पर हूं

एक दायरे के भीतर

सुरक्षित

 महफूज़

मुझ तक नहीं आतीं 

कोई चीख पुकार।।


आस पास बहुत धुंध है

व्यवहार की परंपरा की

इसलिए मुझ तक नहीं

आते लहूलुहान बच्चों की 

अर्धनग्न औरतों चेहरे ।।


मेरे आस पास शोर बहुत है

आरतियां हैं गुनगुनाते नग्मे हैं

इसलिए मुझ तक नहीं आता 

रूदन और गिड़गिड़ाना

आरतों और बच्चों का ।।


मेरे आस पास  है 

रसोई की गंध है पकवानों की खुशबू

इसलिए मुझ तक नहीं आती

जलते अंगो और सड़ती लाशों

की दुर्गंध।।


मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं 

महफूज हूं।।


मेरे पास बहुत कुछ नहीं हैं 

जो मुझे विचलित करता है।।

और मैं आवाज़ भी उठाती हूं 

अपने लिए मांगती हूं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

आस पास घूमने की आजादी

लेकिन  मेरी इस चुप ने 

मुझे दिया भी बहुत

एक छत, एक घर 

वक्त पर खाना पूरा परिवार 

थोड़ा सुख थोड़ा प्यार।।

और मुझे मिला है 

घर संसार

एक अदद बहुत बड़ा सा कलर टीवी है

जिस पर आती हैं खबरें

युद्ध की दंगाइयों की 

और 

मुझे स्वतंत्रता है 

कि डर से उसे बंद कर दूं।

कस के आंखे भींच लूं

मुंह में कपड़ा ठूंस लूं

और कानों में रूई भर लूं

क्योंकि मैं जानती हूं

मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं 

महफूज़ हूं।।


शायद यही होता है

सब अपने अपने द्वीप पर 

बैठें हैं 

सुरक्षित महफूज़।।


थोड़े थोड़े गुलाम लेकिन 

महफूज़

अपने अपने द्वीप पर।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Monday, November 6, 2023

मैं भूखा हूं

 मुझसे अधिकार और अन्याय की बातें मत करना 

मैं भूखा हूं

बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


ना शर्म नहीं ग्लानि नहीं

कोई लाज लज्जा नहीं

मैं भूखा हूं 

बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


क्या बाबू तुम क्या जानो

खाली पेट की खाली बातें

भूख से तड़प वो

आंत दाब नशीली नींद सोना ।।


घूंट भर पानी गट गट पीना

रोज़ जीना रोज़ सौ बार मरना 

बाबू मैं भूखा हूं 

मुझे चाहे सौ गाली देना 

बस बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


और बात ही क्यूं

अगर हो सामर्थ तुम्हारी तो 

पहिले एक रोटी देना

फिर पीछे चाहे जितने आश्वासन देना  ।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Sunday, November 5, 2023

वो मुझको मेरी नजर से कब देखता है

 वो मुझको मेरी नजर से कब देखता है

वो जब भी देखता है मुझमें आईना देखता है।।


यूं तो मालूम है उसको मेरी मजबूरियां

फिर भी मुझसे मिलने के ठिकाने देखता है।।


क्यों मिलता है वो ऐसे खुलकर मुझसे

ऐसे तो हर शख्स अपनी कैफियत देखता है ।।


कह कर भी वो कुछ कहता नही है 

वो जमाने की नजर देखता है ।।


यूं तो है ये शहर उसके लिए अजनबी

वो मुझे क्यों फिर अपनों में  देखता है।।


लिख कर भेजा है एक खत मेरे नाम

मुझसे बतियाने के वो बहाने देखता है।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू