ये रातें हैं मेरी सिर्फ मेरी
मेरे संग मुस्कुराती हैं गाती हैं
और कभी रो देती हैं
बाँटा है मने खुद को , हाँ खुद को
और तुम्हे , इन रातों के साथ
जब पूर्व में उषा झाँकती है
मैं विभाजित हो जाती हूँ
तुमसे, और स्वयं में विभाजित
इन रातों में ही तो मेरी और तुम्हारी पूर्णता है
इनमे मैं स्वयमाब्द्ध हूँ -सम्पूर्ण
कभी कभी इन अंतहीन रातों में
सपने मुझसे मिलने आते हैं
और भोर की उजियाली के संग
ताश से बिखर जाते हैं
मेरी इच्छा सी ही ये रातें
ढल जाती हैं
कभी मुझे थपकी दे सुलाती हैं
कभी भोर तक बतियाती हैं
और कभी मेरी ही सुनती हैं
और मुझे सुनाती हैं
इनके साथ बाँटती हूँ मैं
तुम्हे और खुद को
तुम इन्हें नहीं जानते क्योंकि
उजालों के अनुगामी तुम
निंद्रा में खो जाते हो
पर ये तुम से परिचित हैं
तुम्हारे स्वर से परिचित हैं
ये मुझे सुनती हैं
मन गुनती हूँ संग इनके
कुछ अधूरे से रंगीन सपने
इन रातों के साथ मैं उगती हूँ
सुबह तक ढल जाती हूँ
आंसूओ में डूबी , खिलखिलाहटों से भरी
गम्भीर सी, मैं स्वर मिश्रित कली सुन्दर रातों में
रोज दिन बीतते
मैं चाँदनी सी खिलती हूँ
क्योंकि ये ही तो
सुख सुख की साथी
मेरी अभिन्न सखियाँ हैं
मैं पाती हूँ अपना आप इनके अंधेरों में
और हर सुबह जग में विलुप्त हो जाती हूँ
मनीषा
No comments:
Post a Comment