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Friday, December 7, 2012

रोशनी के कतरे



खिडकी से झांकती 
सामने की दीवार पर 
अठखेली करते रोशनी के कतरे 
उस खिलखिलाती धूप की 
याद दिलाते हैं 
जो अम्बर की खुली छत के नीचे
धरती के असीम आँगन पर फैली है ।
है क्या यह?
रिश्ते-बंधन-संरक्षण -परम्परा ?
या कोरी जड़ता?
अथवा स्वयं में पनपी असुरक्षा 
जब परम्परा अपनी नींव से उखड कर 
पुन; स्वयं  को प्रतिष्ठित 
करने की कोशिश में
 सड़ांध मारती एक लाश सी हो जाती है 
तब, हाँ तब वह छीन लेती है 
व्यक्तियों से उनका अनंत क्षितिज 
और धरा का सुन्दर-मृदुल विस्तार 
और व्यक्ति के व्यक्तित्व का वैराट्य 
और बिठा देती है उन पर संस्कृति के पहरे 
डाल  देती है खिड़की और दीवारों पर परदे 
और ढक  देती है चेहरों पर  घूंघट और नकाब 

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