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Sunday, December 30, 2012

अजन्मी बच्ची



खरोंच कर कोख से तुमने निकाल दिया जिसे 
माँ तेरी वेदना से निकली अजन्मी बच्ची हूँ मैं 
जीना तो मैंने भी चाहा था पर मूक थी 
क्योंकि विशाता ने गढ़ी नही थी तब तक मेरी जुबां 
नही जानती थी जिनके मुँह  में रख भी देता है वो जुबां 
उस जन्मी बेटी की चीखे सुन सके ऐसे कर्ण वो नही गढ़ता 
आज धन्य मानती हूँ की मैं जन्मी ही नहीं 
जब मुझे ऐसे ही मिट मिट कर जीना था 
लोहे की सांखल से विक्षिप्त हो मरना था 
जीती तो भी क्या करती 
माँ  तेरे समाज की रीतियों की बलि चढ़ती 
शायद दो जून पूरे खाने को तरस जाती 
या दहेज की वेदी पर जल जाती 
जब तक जीती तब तक 
नोची खासोटी जाती 
आसपास से घूरती गंदी नज़रों  से कब तक बच  पाती 
मैं अजन्मी रही तो शायद अच्छा ही है 
तू माँ  अकेली मुझे कैसे पाल पाती 
कब तक मुझे बचाती 
जब तू भी तो विवश है 
मिट मिट कर जीने को 
फिर आऊँ माँ तब भी मुझे गिरा देना 
तेरी इस दुनिया से रूठ गई हूँ मैं 
जहाँ मुझे मेरे लिए  कोई देहरी नही मिलती 
तुझसे प्यार तो बहुत करती हूँ मै 
पर रोज़ रोज़  मरने  से बहुत डरती हूँ मैं 

मनीषा 


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