मैं नहीं सोचती तुम्हें,
मन कांप जाता है,सोच कर ,
कैसे! हवा सा एक व्यक्तित्व
गुम हो गया देखते ही देखते।
अभी थे,अब नहीं हो
कहीं नहीं हो, धरा से आकाश तक
तुम्हें पुकार लें , खोज लें
तुम.... नहीं लौटोगे।
तुम्हे एक बार छूने , महसूस करने
और सुनने की चाह लिए
जीवन रीत जाएगा,
लेकिन तुम नहीं आओगे।
इसलिए तुम्हें नहीं सोचती
लेकिन तुम हावी रहते हो,
और किसी ज़िद्दी सूर्य किरण से
आ बैठते हो मन के अंधेरे कोनों में
और चमकते दर्पण से,
मिला देते हो मुझे मेरी विगत स्मृतियों से।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
ओ ह् ह
ReplyDeleteये स्मृतियाँ ही राह जाती हैं । मन के बेचैन भाव जस के तस उकेर दिए हैं । मार्मिक अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी रचना,एक-एक शब्द बोलता हुआ।
ReplyDelete👌🏻👌🏻👌🏻🙃
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteजो स्मृतियों में बसे हो उन्हें सोचने की जरूरत नहीं पड़ती।
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
धन्यवाद
Deleteबहुत ही भावपूर्ण ।
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