तुम कह देती तो
मैं सुन लेती।
यूं आंसुओं का,
पलकों के भीतर सूख जाना
अवरुद्ध कंठ का
बहुत तकलीफ़ भरा होता है।
जैसे
मरूस्थल में प्यासा कोई मर रहा हो
धीरे धीरे।
तुम कहती तो,
शायद
तुम्हारे बोल हवा में तैरते,
पहाड़ों में गूंजते
और नदी के पानी से
समय की धार में बहते जाते।
तुम कहती तो,
कोई कहानी बनती।
शायद
कोई ग़ज़ल या कविता बनती।
तुम्हारी चुप,
लगातार मन की दीवारों
पर चोट देती रहती है।
तुम्हारी अनकही,
कानों में सीसे सी
पिघलती रहती है।
और मैं खुद से पूछती रहती हूं
तुम कहती तो,
शायद
मैं सुन लेती?
मनीषा वर्मा
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteलग रहा किसी आत्मीय से बातचीत हो रही है । मार्मिक ।
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