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Wednesday, February 26, 2014

मन से उतरा तो उतार फेंका

मन से उतरा तो उतार फेंका
पर सोचा क्या कभी
वस्त्र की पीड़ा का भार  उठाया कभी
मूक है रोया नहीं  कभी
इसलिए ठुकरा सके
पर बंद बकस खोले कभी
सूँघी  उसके क्षण क्षण मरते तन  की गंध कभी
तुमने तो उठा के फेंका  उसे कूड़े पर लापरवाही से
था निरीह अबोध ना कर सका विरोध
ध्यान किया कभी
जब तन  में समाए  इतराते फिरते थे
सहेजते थे जिसे,  जतन से संवार करते थे
 नवनीत सुंदर था वह
खूबसूरत , मासूम सा था वह
तुम्हे दे सकता था गौरव समाज का
अगर कहते मेरा अपना है
सबसे प्यारा है
 पर आज निष्ठुर सा तुमने उसे
तिरस्कार दिया , नकार दिया
बिका है बेदाम , रौंदा गया पैरों तले
पर कह ना सका दो शब्द भी अपनी कथा
झांकता है वह बेबस
बंद कूड़े के डब्बे से
शौक नही, त्याग नहीं वह तुम्हारा
जिसे अपनाया नहीं उससे क्या मुँह का फेरना
पर सोचा क्या कभी
वस्त्र की पीड़ा का भार उठाया कभी
मनीषा 

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