Pages

Monday, December 29, 2025

मुझे तो चलना ही है अकेले ही

 मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले  ही 

तुमने क्योंकर पुकार लिया यूँही 

किसी अतीत के कोने से आकर दे दी दस्तक 

मेरे मन के अंधेरो पर अपने उजालों  की 


मेरे बिखरे मन को तुम आज क्यों समेटना चाहते हो 

अपने वक्ष में क्यों मेरा वजूद बसाना चाहते हो 

क्यों जकड़ना चाहते हो मुझे अपने बाज़ुओं में 

मैं तो रो ही रही थी बरसों से हर बरसात में 

तुम किसलिए  अब मुझे अपना कांधा  देना चाहते हो 

ओ! आनेवाले अजनबी तुम क्यों मुझसे परिचित होना चाहते हो 

मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले 

तुम क्यों मेरा साथ देना चाहते हो 


लौट जाओ , 

यहाँ बहुत कंटक है मन के भीतर 

इनमे कैसे फूल खिलेंगे

मन में जो अब संवरते नही उन बेरंग मौसमों में कैसे रंग भरेंगे 

तुम  थाम  तो रहे हो मेरा हाथ हम कैसे संग चलेंगे 

तुम्हारे रास्तों पर फुलवारियां है 

मेरे रास्ते बीहड़ो की ओर जातें  हैं 

तुम लौट जाओ यहीं से 

मेरे पास पाने को कुछ भी नही है 

और तुम्हारे पास खोने को है बहुत कुछ 

मुझे तो चलना ही है इस डगर पर अकेले 

मनीषा

No comments:

Post a Comment