Pages

Sunday, May 11, 2014

माँ थी तो मान था

माँ थी तो मान था 
बड़ा गुमान था 
कब पूरी हो जाती थीं ख्वाहिशें 
इसका ना कोई अहसास था

माँ भाँप लेती थी 
ज़रूरत होने से पहले पूरी हो जाती थीं 
माँ से मायका था 
उस घर लौटने का एक चाव था 
रोज़ रोज़ फ़ोन की घंटी का इंतज़ार था 
हर सावन आने का न्योत था 
माँ थी तो बड़ा मान था
हम में भी बड़ा गुमान था

व्रत त्यौहार कुछ पूरे पूरे से लगते थे
नीम के पेड़ पर झूले से लगते थे
गाँव घर मे मेले से लगते थे
रात भर बातों के सिलसिले चलते थे
घर में पापा के ठहाके गुंजित रहतें थे
माँ थी तो कहाँ हम अकेले से लगते थे
माँ थी तो बड़ा मान था
हम में भी बड़ा गुमान था

घर में पकवान के रेहड़े से लगते थे
चौके मे डब्बे भरे से रह्ते थे
जब घर पहुंचो उसे हम दुबले से लगते थे
कपड़े भी सारे धुले मिलते थे
उसे मेरे बाल हमेशा लम्बे लगते थे
उसे सारे मेरे दोस्त बेटों से लगते थे
माँ थी तो बड़ा मान था
हम में भी बड़ा गुमान था


मेरे लिए पापा से भी लड़ जाती थी
हर चोट उसकी एक फूंक से ठीक हो जाती थी
जो रुलाए मुझे उसे कोसे जाती थी
माँ के आँचल से मैं हाथ पोंछ आती थी
वो गोद मे सिर रख बाल हौले से सहलाती थी
सच बड़े मज़े की मीठी मीठी नींद आती थी
माँ थी तो बड़ा मान था
हम में भी बड़ा गुमान था

कहानी सुना मुँह मे कौर भर देती
कभी डपट कर थाली मे एक और रोटी धर देती थी
जाते समय लड्डू आचार से एक और बैग तैयार कर देती थी
आँखे पोंछ पोंछ आँचल गीला कर लेती थी
सच माँ थी तो बड़ा मान था
हम में भी बड़ा गुमान था
मनीषा

No comments:

Post a Comment