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Monday, March 10, 2014

कटाक्ष से

झुकी आँखों में स्वप्न संजोए 
लाज भरे कदमों से आई थी 
तुम्हारा प्रांगण संजोने 
हर कटाक्ष से 
थोडा भीतर से मरती रही
बिछौने से तुम्हारा यूँ उठ कर चले
जाना
मेरी आँखों के कोरों से पानी सा बहता रहा
फिर भी अश्रु छिपाती रही
कभी पसंद ना आईं मेरी रोटियाँ
कभी पसंद ना आया श्रृंगार
और मैं खुद को बदलती रही
तुम्हारी नज़रों के लिए ढलती रही
रोज मिटती रही
मिट्टी सी रुंधती रही
मन की चोट के निशां नही होते
इसलिए हँसती रही
तुम्हारा आंगन संजोती रही

भीचें होंठ तनी भुकुटि 
वो आँखों में अनुमोदन 
वो डायरी में पांच रूपये का भी हिसाब 
वो हल्के से इज़ाज़त दे देना 
वो बच्चों के शोर पर तुम्हारा 
नाराज़ हो जाना 
मेरा पाँव छू माफ़ी माँगना 
और फिर हमबिस्तर हो जाना 
मैं रोज़ थाली सी परसती रही 
करवा चौथ रखती रही 
जीवन की गठरी में गांठे कसती रही 
रोज मिटती रही 
मिट्टी सी रुंधती रही 
मन की चोट के निशां नही होते 
इसलिए हँसती रही 
तुम्हारा आंगन संजोती रही
manisha

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